महाभारत युद्ध के पहले दिन ही अर्जुन विरोधी पक्ष में भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अपने कुटुंब के लोगों को देखकर धनुष-बाण उठाने से मना कर दिया था। वे अपने परिवार के लोगों से युद्ध नहीं करना चाहते थे और सबकुछ छोड़कर संन्यास धारण करने का विचार कर रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म और कर्म का महत्व समझाया था।
श्रीमद् भगवद् गीता के छठे अध्याय के पहले श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।
अर्थ- श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि जो व्यक्ति कर्मों के फल के बारे में नहीं सोचता है और सिर्फ अपना कर्तव्य पूरा करता है। वही संन्यासी और योगी कहलाता है। सिर्फ अग्नि का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं कहलाता है और केवल कर्मों का त्याग करने वाला योगी नहीं होता।
श्रीमद् भगवद् गीता के पहले अध्याय में अर्जुन सोच रहे थे कि युद्ध भूमि छोड़कर संन्यास धारण करना श्रेष्ठ है। उस समय अर्जुन ये नहीं मालूम था कि जो व्यक्ति निस्वार्थ भाव से कर्म करने वाला कर्म योगी व्यक्ति ही संन्यासी कहलाता है। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोगी और संन्यासी के बारे में बताया।
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। (श्रीमद् भगवद् गीता 6.7)
अर्थ – श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जो व्यक्ति स्वयं पर नियंत्रण पा लेता है, उस सुख-दुख और मान-अपमान का असर नहीं होता है। ऐसे लोगों को ही भगवान की कृपा मिलती है। स्वयं पर नियंत्रण पाना यानी क्रोध, लालच, मोह, अहंकार जैसी बुराइयों से दूर रहना। कर्तव्य से न भागना और धर्म के अनुसार कर्म करना ही व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए।