(मुदस्सिर कुल्लू) लद्दाख में कई जगह भारतीय और चीनी सेनाएं आमने-सामने हैं। सेना ने पैगोंग झील के दक्षिणी हिस्से में 5 प्रमुख चोटियों हेल्मेट, ब्लैक टॉप, कैमल्स बैंक, गुरूंग चोटी और रेकिन ला पर स्थिति मजबूत कर ली है। इन निर्णायक बढ़त में स्थानीय तिब्बती लड़ाकों का भी अहम रोल रहा है। इन्हीं लड़ाकों में से 53 वर्षीय तेनजिन न्यीमा भी थे, जो पैंगोग झील के पास बारूदी सुरंग विस्फोट में शहीद हो गए।
लद्दाख में चोगलामसर स्थित तिब्बती शरणार्थी बस्ती में रहने वाले न्यीमा स्पेशल फ्रंटियर्स फोर्स (एसएफएस) के हिस्सा थे, जिसे लद्दाख, सियाचिन और करगिल जैसे ऊंचे सैन्य क्षेत्रों में लड़ने में विशेष महारत हासिल है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बनीं इस बटालियन में करीब 4000 तिब्बती शरणार्थी थे। उनकी शहादत के बाद से न्यीमा के घर में स्थानीय लोगों और मीडिया का जमावड़ा लगा हुआ है।
सेना से रिटायर हुए और न्यीमा के दोस्त चीता एंचोक कहते हैं कि वे भी दुश्मन की सेना के सामने मुस्तैद रह चुके हैं। न्यीमा का जिक्र आते ही गर्व के साथ कहते हैं कि वो बेहद जोशीले थे। मौजूदा हालात पर चीता कहते हैं कि चीन को सबक सिखाने के लिए सेना तैयार हैं। हमें गर्व है कि तिब्बती लड़ाके सेना के साथ मोर्चा संभाले हुए हैं। लद्दाख में करीब 7500 तिब्बती शरणार्थी हैं। इनमें 5 हजार चोगलामसर में तिब्बती कालोनी में रहते हैं। बाकी 2500 जंगथांग क्षेत्र में बिखरे हुए हैं।
इनमें 4 हजार से ज्यादा सेना में हैं। इस बस्ती के मुख्य प्रतिनिधि सीटेन वांगचुक बताते हैं कि तिब्बती सीधी चढ़ाई वाली पहाड़ियों पर भी आसानी से चढ़ जाते हैं। इसलिए इन्हें पहाड़ी बकरे भी कहा जाता है। अंग्रेजी, तिब्बती और स्थानीय चीनी भाषा में भी काफी अच्छी पकड़ है। यहीं एसएफएस की सबसे बड़ी खूबी है। वे कहते हैं कि हमने तेनजिन के तौर पर बहादुर योद्धा खो दिया, लेकिन दूसरी तरफ खुशी है कि उन्होंने देश के लिए अपना बलिदान दिया।
भारतीय सेना में तिब्बती लड़ाकों को लेकर कई किस्से कहानियां हैं। कहा जाता है कि 1950 के दौरान नेपाल के मस्तंग में भारत और अमेरिका की खुफिया एजेंसियों ने तिब्बतियों को विशेष प्रशिक्षण दिया था। गुल्लिया ट्रेनिंग दी गई। जब चीन ने तिब्बतियों पर अत्याचार शुरू किए तो यहीं बल दलाई लामा को भारत लेकर आया था।
जानकार बताते हैं कि एसएफएफ का गठन चीन को ध्यान में रखकर किया गया था, जिन्हें भारत-चीन सीमा पर ही रखा जाता है। इस दस्ते ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी अहम भूमिका निभाई थी। इसमें 56 जवान शहीद हुए थे। कारगिल के समय खालूबार और चोटी 5500 में पर सीधी चढ़ाई करके पहुंचे थे। इससे भारतीय सेना को इन चोटियां पर फिर से कब्जा करने में मदद मिली थी।
लद्दाख एक गांव ऐसा भी, जहां हर घर से एक शख्स सेना में
लद्दाख में 70 परिवार वाला छोटा सा चुशूट गांव है। यहां हर परिवार से एक शख्स सेना में है। सेना से रिटायर हो चुके 60 साल के गुलाम मोहम्मद कहते हैं कि गांव के 150 जवान सेना में हैं। इनमें कई चीन के सामने मोर्चे पर डटे हुए हैं। गांव में आपको बच्चे, महिलाएं और रिटायर फौजी ही मिलेंगे। वे गर्व से कहते हैं कि कई लोगों ने सर्वोच्च बलिदान िदया है।