बायोपिक फिल्में बनाना आसान नहीं:फिल्म संजू में फैक्ट्स गायब थे; स्क्रिप्ट के हर पेज पर सिग्नेचर जरूरी, गलत छवि दिखाने पर मानहानि का केस

फिल्म ‘छावा’ को लेकर हाल ही में विवाद हुआ। फिल्म के ट्रेलर में छत्रपति संभाजी महाराज को नाचते दिखाया गया था। इस सीन पर पूर्व राज्यसभा सांसद संभाजी राजे छत्रपति ने नाराजगी जताई और कहा कि लेजिम बजाते दिखाना ठीक है, पर छत्रपति संभाजी महाराज को नाचते दिखाया जाना गलत है। फिल्म बनाने के नाम पर कितनी सिनेमाई स्वतंत्रता ली जानी चाहिए, इसकी सीमाएं हैं। इस विवाद के बाद फिल्ममेकर्स ने गाने के उस सीन को डिलीट करने का फैसला लिया। यह फिल्म राइटर शिवाजी सावंत की नॉवेल छावा का एडॉप्टेशन है। फिल्म की बायोपिक में सच्चाई और क्रिएटिविटी का सही बैलेंस होना बहुत जरूरी होता है। क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर जब कहानी के साथ छेड़छाड़ की जाती है, तो विवाद शुरू हो जाता है। फिल्म के प्रोड्यूसर अक्सर यह नहीं समझ पाते कि असली घटनाओं को वैसा ही दिखाएं या फिर कुछ क्रिएटिव बदलाव करके फिल्म को और बेहतर बनाएं, ताकि दर्शकों को फिल्म पसंद आए। जब किसी की जिंदगी पर फिल्म बनानी होती है, तो लाइफ राइट्स, इमेज राइट्स और सपोर्टिंग मटेरियल राइट्स की अहमियत होती है, ताकि फिल्म सही तरीके से और कानूनी रूप से बन सके। बिना राइट्स के फिल्म बनाने से कानूनी पचड़े भी आ सकते हैं, जैसे किसी की छवि को गलत तरीके से दिखाना या परिवार से विवाद होना। आज ‘रील टु रियल’ के इस एपिसोड में हम जानेंगे कि बायोपिक फिल्मों के लिए किस तरह से राइट्स लिए जाते हैं। किताब पर फिल्म बनाने के लिए किससे राइट्स लेने पड़ते हैं। राइट्स लेने के बाद भी फिल्म मेकर्स को किस तरह की चुनौतियां आती हैं। इस पूरे प्रोसेस को समझने के लिए हमने डायरेक्टर तुषार हीरानंदानी, शाद अली और एडवोकेट तरुण शर्मा से बातचीत की। डायरेक्टर-प्रोड्यूसर को फैक्ट्स जानना चाहिए एडवोकेट तरुण शर्मा ने बातचीत के दौरान बताया- हाल ही में फिल्म ‘छावा’ के ट्रेलर में संभाजी महाराज को लेजिम बजाते हुए दिखाया गया, जिस पर बहुत विवाद हुआ। ऐसा हर बायोपिक के साथ होता है। प्रोड्यूसर-डायरेक्टर को बिना फैक्ट्स जाने बायोपिक नहीं बनानी चाहिए, लेकिन अपनी क्रिएटिविटी के लिए वे दर्शकों के बीच एक डाउट क्रिएट कर देते हैं। फिल्म ‘संजू’ के अंदर फैक्ट्स गायब थे जब संजय दत्त कोर्ट में हाजिरी देने आते थे, उस वक्त मैं कोर्ट में प्रैक्टिस कर रहा था। मैंने देखा है कि उनको किस एविडेंस पर सजा सुनाई गई थी। चाहे कोई गरीब हो या अमीर कानून सबके लिए बराबर है। मैंने संजय दत्त की बायोपिक फिल्म ‘संजू’ देखी है। उस फिल्म में वह सब गायब है, जो 1993 बम ब्लास्ट के बाद की जनरेशन को दिखाया गया है। बम ब्लास्ट में संजय दत्त का क्या रोल था, कोर्ट में जो एविडेंस आया। कोर्ट में जज ने जो कहा और इसके बाद जो भी जजमेंट आया, वह सब फिल्म में अलग दिखाया गया। उस फिल्म के अंदर उनके किरदार का एक स्टेटमेंट भी है, जिसमें वे एडमिट करते हैं कि उनकी कितनी गर्लफ्रेंड है। मेरे ख्याल से इससे महिलाओं की बदनामी की जा रही थी, लेकिन उस समय किसी ने कुछ नहीं कहा। क्रिएटिविटी के नाम पर फैक्ट्स से छेड़छाड़ फिल्म ‘डी कंपनी’ में 1993 बम ब्लास्ट के मास्टरमाइंड और मोस्ट वांटेड एक्यूज्ड दाऊद इब्राहिम की कहानी दिखाई गई। इस फिल्म में कहीं भी नहीं दिखाया गया कि दाऊद बम ब्लास्ट करके इंडिया से भाग गया है। ब्लास्ट के बाद मुंबई शहर की क्या हालत हो गई थी। उस घटना के बाद हिंदू-मुस्लिम के बीच दंगे कितने बढ़ गए थे। बायोपिक फिल्म बनाने के लिए लीगल प्रोसेस की जरूरत होती है अगर किसी लिविंग लीजेंड पर फिल्म बन रही है, तो उस व्यक्ति और उसकी फैमिली से परमिशन लेनी पड़ती है। उसके बाद उनके लीगल हायर से चीजें शॉर्ट करनी पड़ती हैं। फिर फैक्ट्स के लिए रिसर्च टीम की जिम्मेदारी बहुत बड़ी होती है। फैमिली से लीगल एग्रीमेंट करना होता है। टर्म और कंडीशन बनाने होते हैं। फैमिली के ऊपर यह निर्भर करता है कि वो पैसे की कितनी डिमांड करती है। फैमिली और फिल्ममेकर की आपसी सहमति के बाद पैसे के लेन-देन का एग्रीमेंट बनता है। बिना परमिशन बायोपिक बनाई जाए तो क्या हो सकता है? कई बार ऐसा होता है कि बायोपिक पर फैमिली की परमिशन नहीं ली जाती है, मामला कोर्ट तक पहुंच जाता है। फैमिली वाले फिल्म पर स्टे लगाने की मांग करते हैं। उसके बाद सेटलमेंट होता है। अगर सामने वाले की बिना सहमति के फिल्म बनती है तो सबसे पहले डिफेमेशन (मानहानि) केस होता है। इसके अलावा मिसलीडिंग फैक्ट्स (ऐसी जानकारी जो झूठी या गलत हो), मिस रिप्रेजेंटेशन (अपमानजनक चित्रण) का केस भी हो सकता है। इसलिए बायोपिक बनाने के लिए सबसे पहले उस इंसान की सहमति लेनी जरूरी है। अगर वो जिंदा नहीं है, तो फैमिली और लीगल हायर की सहमति लेनी जरूरी होती है। डिफेमेशन केस में क्या करना पड़ता है? डिफेमेशन एक लंबा प्रोसेस होता है। कोर्ट को अपने सबूत से यकीन दिलाना होता है कि आप डिफेम (बदनाम) हुए हैं। प्रोसिजर के दौरान सारे फैक्ट्स देने होते हैं। उसके बाद कोर्ट में दलील होती है। फिर दूसरी पार्टी को नोटिस इश्यू होता है और कोर्ट में बुलाया जाता है। वो जो फैक्ट्स देते हैं, उस पर सवाल-जवाब होता है। स्टेटमेंट लिया जाता है, गवाहों को बुलाया जाता है। कोर्ट के प्रोसिजर के हिसाब से केस चलता है। उसके बाद डिफेमेशन का ऑर्डर आता है। अक्सर देखा गया है कि ऐसे केस में दोनों पार्टी के बीच सेटलमेंट हो जाता है। बायोपिक डॉक्यूमेंट्री नहीं लगनी चाहिए तुषार हीरानंदानी ‘सांड की आंख’ और ‘श्रीकांत’ जैसी फिल्म के अलावा वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ डायरेक्ट कर चुके हैं। यह तीनों ही बायोपिक है। तुषार हीरानंदानी कहते हैं- बायोपिक बनाने से पहले यह सोचना पड़ता है कि बनाना क्या है? फिल्म ‘सांड की आंख’ में मुझे दो दादियों की कहानी बतानी थी। जिन्होंने 65 की उम्र में शूटिंग शुरू की थी। मुझे यह ध्यान रखना था कि डॉक्यूमेंट्री ना लगे। मुझे लगता है कि किसी की भी बायोपिक हो, उसमें एंटरटेनिंग के साथ मजेदार किस्से के अलावा एक संदेश होना चाहिए। राइट्स के लिए बहुत कन्विन्स करना पड़ा जब मैं ‘सांड की आंख’ के लिए राइट्स लेने गया था, तब मुझे बताया गया कि पहले से किसी को राइट्स दे दिया गया है। अनुराग कश्यप ने मुझे सुझाव दिया कि उनको बोलना कि प्रकाशी तोमर और चंद्रो तोमर पर डॉक्यूमेंट्री बनानी है। उनके फैमिली के लोगों ने कहा कि आप डॉक्यूमेंट्री मेकर नहीं हैं। कुछ और करना चाहते हैं। जब मैंने कहा कि फिल्म बनाना चाहता हूं, तो उन्होंने राइट्स मुझे दे दिए। ‘श्रीकांत’ के राइट्स के लिए बहुत समय लगा। इस फिल्म के भी राइट्स पहले किसी और के पास थे। मुझे राइट्स के लिए उन्हें बहुत कन्विन्स करना पड़ा था। सबको लगता है कि राइट्स के बहुत पैसे मिलते हैं बहुत सारी बायोपिक फिल्में बन चुकी हैं। सबको लगता है कि राइट्स के बहुत पैसे मिलते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। जिनकी कहानी बहुत फेमस है, वो लोग अच्छे पैसे डिजर्व करते हैं। उनको अच्छे पैसे मिल भी जाते हैं, लेकिन जो लोग ज्यादा फेमस नहीं होते हैं। उनको ज्यादा पैसे नहीं दे सकते हैं क्योंकि फिल्म बनने के बाद वो लोग फेमस होते हैं। क्रिएटिव लिबर्टी में किन बातों का ध्यान रखना पड़ता है? क्रिएटिव लिबर्टी में थोड़ा रियलिस्टिक होना पड़ता है। अगर हम ‘श्रीकांत’ फिल्म की बात करें तो यह फिल्म दृष्टिबाधित इंडियन इंडस्ट्रियलिस्ट श्रीकांत बोला की लाइफ पर बेस्ड थी। क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर यह नहीं दिखा सकते हैं कि वो अचानक एक्शन करने लगेगा। या फिर गाड़ी चलाने और नाचने लगेगा। स्क्रिप्ट के हर पेज पर सिग्नेचर लेना जरूरी होता है फिल्म की रिलीज के बाद किसी तरह का विवाद ना हो, इसके लिए रिलीज से पहले जिसकी बायोपिक बना रहे हैं, उनके फैमिली मेंबर को फिल्म दिखा देनी चाहिए। वैसे कहानी पर रिसर्च करने के बाद जब पूरी स्क्रिप्ट तैयार हो जाती है, तब मैं स्क्रिप्ट शेयर करता हूं और हर पेज पर सिग्नेचर लेता हूं। शूटिंग के दौरान थोड़े बहुत चेंजेज तो होते रहते हैं, लेकिन इतना भी नहीं होता है कि उनको किसी बात पर आपत्ति हो। कहानी किसी किताब पर आधारित हो तो? वेब सीरीज ‘स्कैम 2003’ पत्रकार संजय सिंह की लिखी किताब ‘तेलगी स्कैम: रिपोर्टर की डायरी’ से ली गई है। किताब का राइट्स लिया गया था। एक बार पैसे काे लेकर डील हो गई तो किताब से अपने हिसाब से कहानी लेकर फिल्म या सीरीज बना सकते हैं। कहानी को सच्चाई से पेश करने की मेकर्स की जिम्मेदारी होती है डायरेक्टर शाद अली की फिल्म ‘सूरमा’ हॉकी प्लेयर संदीप सिंह की जिंदगी पर आधारित थी। शाद अली कहते हैं- पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी के निजी जीवन पर काम कर रहा था। किसी के जीवन पर फिल्म बनाने का दो तरह का प्रोसेस होता है। हमारी एथिकल और मॉरल ड्यूटी होती है कि कहानी को सच्चाई से पेश करें और अपने काम के प्रति जिम्मेदारी होती है कि उसे सही तरीके से लिखें और फिल्मांकन करें। ________________ रील टु रियल की यह स्टोरी भी पढ़ें.. पॉलिटिशियन बनने के बाद कंगना ने ड्रेसिंग स्टाइल बदली:हॉरमोनियम की मदद से कार्तिक की आवाज सुधरी; आजकल बॉलीवुड में एक्टिंग के साथ-साथ इमेज और पर्सनैलिटी भी महत्वपूर्ण हो गई है। एक्टर्स को परदे पर परफेक्ट दिखने के साथ-साथ ऑफ-स्क्रीन इम्प्रेशन भी अच्छा रखना होता है। फिल्म प्रमोशन, अवॉर्ड फंक्शन, मीडिया इंटरैक्शन में उनकी पर्सनैलिटी, बॉडी लैंग्वेज और आवाज सब कुछ मायने रखते हैं। पूरी खबर पढ़ें..