कहानी
इंतज़ार मे
मेहा गुप्ता
मैंने जैसे ही चीनी मिट्टी की बरनी में चमचा डाला तो पटऽऽ की आवाज़ के साथ चमचा बरनी के पेंदे से टकराया। बरनी टेढ़ी कर अंदर झांका तो उसमें अचार ख़त्म हो चुका था, अब सिर्फ़ तेल में सने सौंफ़ और मेथी के दाने छितरे पड़े थे।
अचार तो ख़त्म हो गया था पर उसकी ख़ुशबू ने मां के हाथ के बने कैरी के अचार के स्वाद की याद ताज़ा कर दी जिससे मेरे मुंह के साथ-साथ आंखों में भी पानी भर गया।मैं बालकनी में जाकर खड़ी हो गई। हर साल तो इन दिनों मैं मां के आंचल की छांव में उसकी ममता के हिलोरों का आनंद ले रही होती हूं।
इन चंद दिनों का तो मैं पूरे साल बेसब्री से इंतज़ार करती हूं। और करूं भी क्यों न, यहां आकर मैं अपने बचपन में लौटती हूं और मां नाम की जादुई परी पलक झपकते ही मेरी सारी तकलीफ़ों को दूर कर देती है।मां, उसके उत्साह के तो कहने ही क्या… वह तो जाने कितने महीनों पहले से मेरे आगमन की तैयारियां शुरू कर देती है।
मेरा मायके जाना किसी उत्सव से कम नहीं होता है। नित नए पकवानों की ख़ुशबू से घर महका रहता है। मेरे पहुंचते ही मां मेरी अटैची के पास मुझे देने के सब सामानों का एक कोने में ढेर लगाना शुरू कर देती है। साल भर डाले गए अचार, मुरब्बे, मसाले, सुखाई हुई काचरी, ग्वार, खिचिए, मंगोड़ी और भी ना जाने क्या-क्या।
मैं बनावटी ग़ुस्से के साथ मां को कहती भी हूं कि ‘क्या मां! मेरे आते ही मुझे वापस भगाने की तैयारी भी शुरू कर दी।’‘लाड़ो, ग्रह-नक्षत्र और ब्याही बेटी अपने-अपने घरों में ही शोभा देते हैं।’‘तो क्या मैं ये मानूं कि आप मुझे राहू कह रही हैं?’‘
नहीं रे… तू तो मेरी आंखों का नूर है। मैं तो ये सब इसलिए रखती जाती हूं जिससे जल्दबाज़ी में कोई सामान छूट न जाए,’ मां मुझे लाड़ लगाते हुए कहतीं। जैसी अनोखी मां, वैसे ही अनोखे उसके तर्क। मेरी शादी को इतने साल हो गए थे पर आज भी मां के हाथ से तैयार मसाले ही मेरी रसोई को महका रहे हैं।
सुबह की चाय के मसाले से लेकर रात के हल्दी वाले दूध तक… मां को कितनी बार समझाया है ये सब बाज़ार से भी ख़रीद सकती हूं, पर नहीं… कहती हैं, ये मसाले तो जान हैं भारतीय रसोई की, जिनमें स्वाद भी है और सेहत भी।
इनके साथ किसी तरह का समझौता नहीं होना चाहिए। पर इस साल की बात अलग है। लॉकडाउन भले ही खुल गया है किंतु महामारी के प्रकोप में कमी नहीं आई है। बीमारी से बचने के लिए सब अपने घरों में सिमट जाने को मजबूर हैं।
ऐसे में बहुत आवश्यक न होने पर यात्रा करना भी मुनासिब नहीं था। फिर पति और वृद्ध सास-ससुर को छोड़कर जाऊं भी तो किसके भरोसे? पर यादों और जज़्बातों का क्या! उन्हें कोई बंधन या सरहद नहीं अड़ती। वे तो पल में कहीं भी पहुंच जाने को आतुर रहते हैं।
विचारों में खोए हुए ही मेरी नज़र सामने की सड़क पर खड़ी कैरी की लारी पर गई। हां, राजापुरी ही थी। बिलकुल वैसी ही बड़ी-बड़ी जो मां के अनुसार अचार के लिए एकदम उपयुक्त होती है। मैंने हिम्मत कर मन ही मन एक फ़ैसला लिया और मास्क एवं चप्पल पहनकर उसके पास पहुंच गई।
जब मैं लौटी, मेरे हाथ में कैरी से भरा थैला था। मैंने सबसे पहले फ़ोन पर मां को यह ख़बर सुनाई। मां ने भी मेरी हौसला अफ़ज़ाई की और निश्चित हुआ कि कल वीडियो कॉल कर मां के निर्देशन में अचार बनाने का अभियान चलाया जाएगा।
मैंने मां से पूछकर अचार और मुरब्बे में डालने के सारे मसाले एकत्र कर लिए। नियत समय पर मां के निर्देशन में ये कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। मैंने एक गहरी सांस भर अचार की भरपूर ख़ुशबू ली, बिलकुल मां के अचार वाली ख़ुशबू थी।
मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, जैसे मैंने एवरेस्ट फ़तह कर ली हो। चैन की सांस लेकर थककर बिस्तर पर औंधी पड़ गई। मैंने तो अचार, मुरब्बा बनाकर पूरे साल के लिए पूड़ी और स्वाली का स्वाद सुनिश्चित कर लिया था। रही बात मसालों की, तो मां ने आश्वासन दिया कि तेरे यहां का कोई साथ मिला तो मैं भिजवा दूंगी।
लेटे-लेटे मुझे मां का चेहरा याद आने लगा जिसमें इस साल बेटी के न आने का दुख साफ़ झलक रहा था। मां ने तो फोन पर मेरी समस्या हल कर दी थी। पर मेरे पास अपनी मां की मदद के लिए कोई समाधान नहीं है। मेरी आंखों के सामने सारा मंज़र घूम गया।
मां की कुर्सी के पास रखी सिलाई मशीन जिस पर कई चादरें और साड़ियों की किनारियों से लटक रहे छूतरेनुमा धागे, कई उधड़े कपड़ों का जमघट प्रमाण थे कि वो मेरा इंतज़ार कर रही थी। मां के दुखते घुटनों में अब वो ताक़त नहीं रह गई थी कि इतनी देर बैठकर सिलाई मशीन चला चद्दरों के किनारे मोड़ सके या साड़ी की फ़ॉल लगा सके।
बारिश के मौसम में गठिया से जकड़ा उसका शरीर मेरे हाथ के स्नेह में पगे स्पर्श की गरमाहट की बाट देख रहा था। उसकी डबडबाई-सी आंखें साल भर में उसके मन के सात तालों में बंद रही ढेर सारी सुख-दुख की बातों को मेरे सामने खोल घुमड़ जाने को आतुर थीं।
मुझे अहसास हुआ कि मुझसे ज़्यादा मां को मेरी ज़रूरत है। मेरी आंखें पनीली हो गईं। मैंने उसकी फ़ोटो हाथ में ले, उसे सीने से लगा उससे वादा किया ‘चिंता मत कर मां। परिस्थिति सामान्य होने पर मैं जल्दी ही आऊंगी।’
कविता
ख़्याल तुम्हारे
लेखिका :अनुपमा अनुश्री
ख़्याल हैं तुम्हारे बारिशों की तरह
बरस पड़ते हैं दिल की ज़मीं पर।
किस क़दर घुली है इनमें
कच्ची अमराई की सुगंध
निश्छल नेह का मकरंद
और कच्ची उम्र की लड़ाई भी
खट्टा- मीठा स्वाद ठहरा सा है ज़ुबां पर ।
पलकों पर टंकी शफ्फ़ाफ़ रात थी
चांद से गुफ्तगू जो साथ की
रोशन पुंज वो आप्लावितकरता रूह को
उत्कीर्ण है हृदय पर।
कभी न ख़त्म होने वालीबातें
वो शहद के धारों सी
भिगो भिगो जाते फव्वारों सी
अकूत ख़ज़ाना था वो यहीं कहीं पर।
संदली हवा का संस्पर्श था
कि जागृत हुआ गुनगुनानामन में स
जा कोई मासूम तराना
कैसे वे रेशमी सिरे खुलते रहे
गुलाबी एहसासों के, दिल पर।
एक पल में बातें सदियों सी
बीत गई वो सदी भी पल सी
क्या, क्यूं ,कैसी, कब थी जानी
भावों की इस यात्रा मेंउद्गम है,
अंत कहां पर!
ख़्याल है तुम्हारे बारिशों की तरह
बरस पड़ते हैं दिल की ज़मीं पर।