महाभारत युद्ध के अंतिम चरण में भीम ने दुर्योधन का वध कर दिया था। कौरवों की हार हुई और इसके बाद युधिष्ठिर राजा बने। धृतराष्ट्र और गांधारी जीवित थे, लेकिन उनका पूरा कौरव वंश खत्म हो चुका था। युधिष्ठिर के राजा बनने के बाद ये दोनों भी पांडवों के साथ ही उनके महल रहने लगे थे।
पांडवों की माता कुंती धृतराष्ट्र और गांधारी का पूरा ध्यान रखती थीं, लेकिन भीम धृतराष्ट्र को ताने मारते थे। इसी तरह करीब 15 साल बीत गए। एक दिन भीम के तानों से दुखी होकर धृतराष्ट्र और गांधारी ने वन में जाकर तप करने का निश्चय किया। ये सोचकर वे दोनों महल छोड़कर वन में चले गए। इनके साथ ही कुंती ने भी महल छोड़ दिया।
माता कुंती के जाने से सभी पांडवों दुखी थे। लेकिन, वे माता को रोक नहीं सके। तीनों के वन में जाने के बाद काफी समय ऐसे ही व्यतीत हो गया। पांडवों को इन तीनों के विषय में कोई जानकारी नहीं थी। तभी एक दिन देवर्षि नारद युधिष्ठिर के पास पहुंचे। युधिष्ठिर जानते थे कि नारद मुनि को तीनों लोकों की खबर रहती है। इसीलिए उन्होंने धृतराष्ट्र, गांधारी और अपनी माता कुंती के बारे में पूछा कि ये लोग कहां हैं और कैसे हैं?
नारद मुनि ने बताया कि जब धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती हरिद्वार के पास वन में रहकर तपस्या कर रहे थे, तब एक दिन वहां के वन में भयंकर आग लग गई। दुर्बलता की वजह से धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भाग नहीं सके। तब उन्होंने उसी आग में प्राण त्यागने का विचार किया और वहीं एकाग्रचित्त होकर बैठ गए। इस तरह धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की मृत्यु हो गई।
नारद मुनि से धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की मृत्यु की बात सुनकर पांडव दुखी हो गए। तब देवर्षि नारद ने सभी को सांत्वना दी। इसके बाद युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सभी का श्राद्ध कर्म किया। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देकर उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की।