लघुकथा : बिजली का दर्द
लेखक : मधुकांत
अम्मा आज फूट-फूटकर रो पड़ीं। बाबूजी की मौत पर भी इस प्रकार बिलख-बिलखकर नहीं रोई थीं। बड़े भाई सोमेश ने तल्ख आवाज़ में कह दिया, ‘अम्मा, तुम भी छोटी-छोटी बातों को लेकर हम तीनों भाइयों में दरार डाल रही हो।’
‘मैं दरार डाल रही हूं? मैं… मैं तुम्हारी अम्मा हूं। हे भगवान!’ इतना कहकर अम्मा फूट-फूटकर रोने लगीं। सोमेश को भी नहीं मालूम था कि अम्मा उसकी बात को इतनी गहराई से पकड़कर बिखर जाएंगी।
उसने मां के सामने अपनी ग़लती को स्वीकार किया, ‘अम्मा, मैंने तो सादे मन से कह दिया था, आपको बुरा लगा तो मुझे माफ़ करना।’
परंतु अम्मा का बिलखना हिचकियों में बदल गया। अपने आप को असमर्थ पाकर सोमेश अपनी बीवी के साथ बाहर निकल गया।
गणेश और चंद्रेश भी आंगन में खड़े थे। उनके चेहरे पर प्रश्नचिह्न देख सोमेश सफ़ाई देने लगा, ‘अम्मा कह रही थीं कि तुम सारे भाई अपना बिजली का मीटर अलग लगवा लो। सब बिजली बर्बाद करते हैं।
मुझे यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा, तो मैंने कह दिया कि आप हम भाइयों में दरार डालना चाहती हो। बस इतनी-सी बात थी और तब से अम्मा रोए जा रही हैं। चुप ही नहीं हो रहीं।’
‘चंद्रेश, तू जाकर अम्मा को शांत कर ले, तेरी बात मान लेंगी।’ गणेश ने चंद्रेश की पीठ पर हाथ रख दिया। सबसे छोटा होने के कारण वह अम्मा का सबसे प्यारा बेटा था।
चंद्रेश मां के कमरे में आ गया, ‘क्या हो गया अम्मा?’ वह उनके पास बैठ गया। चंद्रेश को देखकर अम्मा का रुदन फिर फूट पड़ा।
‘ऐसा न करो अम्मा, बताओ तो सही बात क्या है?’ चंद्रेश की बीवी ने अम्मा को बिठाकर पानी पिलाया। कुछ संभली, तो अम्मा उठ बैठीं।
‘अम्मा, आज आपको क्या हो गया?’ गहरी आत्मीयता से चंद्रेश ने पूछा।
‘बेटे, मैं ख़ुद नहीं जान पा रही हूं, आज मेरा मन इतना भारी क्यों हो गया। बात भी कुछ विशेष नहीं थी परंतु मुझसे यह बिजली की बर्बादी देखी नहीं जाती।’
अम्मा तनिक उत्तेजित हो गईं, ‘ये बात विशेष नहीं कि बिजली का बिल मेरी पेंशन से जाता है परंतु सब साझे की होली समझकर बिजली बर्बाद करने में लगे हैं। इसका मुझे दुख है।’
मां सांस लेकर फिर बोलने लगीं, ‘तुम ही बताओ चंद्रेश, किसी घर का बिल 20 हज़ार रुपए आता है? ₹20 हज़ार में तो एक साधारण परिवार का महीने भर का ख़र्च चल सकता है। बिजली के प्रति तुम सब लापरवाही करो, और तुम्हारे बच्चे तो चालू करके कभी बंद करने का नाम ही नहीं लेते।
सारे घर में बिजली बंद करने का काम मेरा ही रह गया क्या? माना तुम्हारी आर्थिक स्थिति अच्छी है, इस बिल से तुम्हें कुछ विशेष फ़र्क नहीं पड़ता परंतु सुना नहीं है तुमने कि देश में पहले ही ऊर्जा का संकट बना रहता है। फिर ऐसी वस्तु को बर्बाद करना तो राष्ट्रद्रोह है।’
‘परंतु अम्मा हम जितनी बिजली ख़र्च करते हैं, ईमानदारी से उसका बिल अदा करते हैं,’ चंद्रेश ने अम्मा को समझाना चाहा। ‘बेटे, बात बिल देने या न देने की नहीं है। देश के सारे संसाधन हम सबके साझे हैं, जिन पर सबका साझा अधिकार है।
किसी के घर में तो सारी रात एसी बेकार में चलता रहे और दूसरे घर में बिजली न होने के कारण बालक पढ़ ही न पाए। बेटे, हमने उस बालक के हिस्से की बिजली हथिया ली है और हम उसको व्यर्थ लुटाकर पाप कर रहे हैं, पाप।
सीधी-सी बात तुम लोग समझ सकते हो। चूंकि हम बिल चुका सकते हैं, इसी से तो हमें बिजली को व्यर्थ करने का हक़ नहीं मिल जाता।’ लगा अम्मा फिर अपने अध्यापिका वाले दौर में लौट गई हैं।
‘सुनो, अम्मा को यहीं नाश्ता करवा दो, मैं भी अपना नाश्ता लेकर आता हूं,’ अपनी पत्नी को बताकर चंद्रेश उठ गया।
अम्मा अब बेहतर महसूस कर रही थीं। आज उन्हें चंद्रेश के पापा याद आ गए। उनके जाने के इतने साल बाद आज अचानक सोमेश के कठोर वचन सुनकर अम्मा का मन भर आया था। वे सारी उम्र तीनों भाइयों को जोड़ने की कोशिश करती रहीं।
अपने अध्यापन काल में भी कक्षा में सदैव एकता का पाठ पढ़ाती रहीं। अपने घर में बिजली की बचत करती रहीं और अपने छात्रों को सदैव बिजली बचाने का संदेश देती रहीं। तब से आज तक बिजली बचाने की आदत बन गई।
घर में हो या घर से बाहर, कहीं भी बिजली बर्बाद होती दिखाई देती है तो अम्मा उसके ख़िलाफ़ आवाज़ ज़रूर उठाती हैं।
चंद्रेश और उसकी पत्नी मां का नाश्ता लिए कमरे में आ गए। ‘मां, परिवार के सभी सदस्यों ने मिलकर फ़ैसला किया है कि जो भी घर की बिजली बर्बाद करेगा, उस पर हर बार ₹50 रुपए का जुर्माना लगेगा।
जुर्माने तथा बिजली के बिल से जो बचत होगी उससे हम सारे घर में एलईडी बल्ब लगवा लेंगे। अब तो आप ख़ुश हो न! लो नाश्ता कर लो।’ हाथ में प्लेट पकड़ते हुए अम्मा के चेहरे पर संतोष की मुस्कान बिखर गई।

लघुकथा : कैलेंडर याद आता है
लेखिका : रीटा मक्कड़
आज भी वो दिन आंखों के सामने एक चलचित्र की भांति घूमते रहते हैं जब लोगों का प्यार छतों पर परवान चढ़ा करता था। तब आज की तरह एक-दूसरे से बात करने को फोन तो होते नहीं थे कि जो अच्छा लगे, जल्दी से उसको संदेश भेज दो या फिर फोन करके अपने दिल की बात बता दो।
तब तो बस आंखों की भाषा ही पढ़ लेते थे और आंखों-आंखों में बात होने दो की तर्ज़ पर ही प्रेम में पगे प्रेमी प्यार की पहली सीढ़ी चढ़ लेते थे। और फिर दिल की बात बताने के लिए या तो ख़त भेजे जाते वह भी पकड़े जाने के डर के साथ या फिर कोई और ज़रिया ढूंढना पड़ता था।
छत पर ही तो देखा था उसने उसको पहली बार। उस लड़की के घर के पिछवाड़े उसका घर था और दोनों घरों की छतों के बीच में बस एक छोटी-सी दीवार ही तो थी।
वो छत से सूखे हुए कपड़े उतारने आया था। उसकी नज़रों से नज़रें मिलीं। घर का इकलौता बेटा होने के कारण उसे अपनी मां की मदद तो करनी ही पड़ती थी, सो बस फिर ये छत से सूखे कपड़े उतारकर लाने का सिलसिला रोज़ का हो गया और फिर रोज़-रोज़ नज़रें टकराने लगीं।
आंखों-आंखों में, बिना कुछ कहे ही दिल की बात दिल तक पहुंचने लगी। एक दिन देखा तो उसके हाथ में एक कैलेंडर था जो उसने फोल्ड करके पकड़ा हुआ था। उस दिन जब नज़रें मिलीं तो उसने वह कैलेंडर अपनी छत से उसकी छत पर फेंक दिया।
और जब लड़की ने कैलेंडर खोलकर देखा तो वह सोहणी महिवाल की तस्वीर वाला कैलेंडर था। उसके पीछे की तरफ़ उसने लिख रखा था… अंग्रेज़ी में कहते हैं कि… आई लव यू… बंगाली में कहते हैं कि आमी तमाके भालो बाछी, और पंजाबी में… इसके बाद उसने ख़ाली स्थान छोड़ दिया था क्योंकि शायद वो पंजाबी में प्यार का इज़हार उसके मुंह से सुनना चाहता था।
लेकिन उस लड़की ने उस कैलेंडर को अपनी अलमारी में छुपा दिया और उस लड़के को कोई जवाब नहीं दिया। आज तक वो ख़ुद ही समझ नहीं पाई कि वो घरवालों से डर गई थी या फिर उसकी नाक कुछ ज्यादा ही ऊंची थी कि उस कच्ची उम्र के प्यार को स्वीकार ही नहीं कर पाई।
फिर उसकी शादी हो गई। बेटी से बहू बनी फिर मां, मां से सास और फिर दादी-नानी भी बन गई। लेकिन आज भी वो छत वाला प्यार दिल से निकाल नहीं पाई। जब भी वो सोहणी महिवाल का कैलेंडर याद आता है, दिल में कुछ चुभता हुआ महसूस होता है और बरबस ही उसकी आंखें भीग जाती हैं।