जीवन में अधूरापन लगता है तो मन अशांत रहता है। हमें शांति कैसे मिल सकती है, इस प्रश्न का उत्तर श्रीमद् भागवत कथा में शुकदेव जी और राजा परीक्षित के प्रसंग से मिल सकता है। शुकदेव जी राजा परीक्षित को भागवत कथा सुना रहे थे। राजा परीक्षित के जीवन के कुछ ही दिन शेष बचे थे। कथा सुनते समय राजा ने शुकदेव जी से पूछा था कि कलियुग में लोग इतने बेचैन क्यों रहते हैं? मन शांत क्यों नहीं रहता? शुकदेव जी ने उत्तर दिया कि यही प्रश्न एक बार पृथ्वी ने भगवान से पूछा था। पृथ्वी ने भगवान से कहा था कि हे प्रभु! ये राजा जो खुद मौत के खिलौने हैं, ये सब मुझे जीतना चाहते हैं, लेकिन अभी तक कोई भी मुझे अपने साथ ऊपर नहीं ले जा सका है। ये सब वैभव, धन-दौलत, सत्ता के लिए लड़ते हैं, लेकिन अंत में सब यहीं छूट जाता है। शुकदेव जी ने आगे बताया कि धरती की सारी लड़ाई संपत्ति के लिए है। सभी चाहते हैं कि मेरे पास सबसे ज्यादा संपत्ति हो, लेकिन जब जाना होगा तो सब कुछ छोड़कर ही जाना होगा। उदाहरण देते हुए शुकदेव जी ने कहा कि राजा नहुष, राजा भरत, शांतनु, रावण, हिरण्याक्ष, तारकासुर, ये सभी शक्तिशाली थे, लेकिन सब खाली हाथ गए। परीक्षित ने अगला प्रश्न पूछा – जब दुनिया इतनी अशांत है, गलतियां बढ़ रही हैं, रिश्तों की अहमियत बदल रही है तो शांति कैसे पाएं? शुकदेव जी बोले कि जो लोग भगवान का नाम जपते हैं, पूजा-पाठ, ध्यान करते हैं, उन्हें शांति जरूर मिलती है। यही योग है। यही शांति पाने का सूत्र है। इस कथा से सीखें शांति पाने के 4 सूत्र धरती के उस संवाद में ये बात सामने आती है कि जितना हम भौतिक वस्तुओं को पाने की दौड़ में लगते हैं, उतनी ही हमारी मानसिक शांति कम होती जाती है। संपत्ति का स्वामी नहीं, सेवक बनने का भाव रखना चाहिए। चीजों से मोह न रखें, विवेक रखना चाहिए। राजा हों या आम व्यक्ति, जब मृत्यु सामने खड़ी होती है तो न सिंहासन साथ जाता है और न खजाना। सच्चा निवेश वही है, जो आत्मा को समृद्ध करता है, ध्यान, दया, भक्ति, सेवा में समय का निवेश करें। रिश्ते टूट रहे हैं, समय की कमी है, नैतिकता कमजोर हो रही है। इन सबका समाधान बाहर नहीं, भीतर है। रोज थोड़ा समय अपने मन में झांकने में लगाएं, जप, प्रार्थना और ध्यान करें। शुकदेव जी ने जिस योग की बात की, वह केवल शरीर की कसरत नहीं, बल्कि मन और आत्मा का संतुलन है। योग और भक्ति से ही भीड़ में भी एकांत, और शोर में भी शांति मिलती है। शुकदेव जी और राजा परीक्षित की ये बातचीत, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। भले ही समय बदल गया हो, तकनीक आ गई हो, लेकिन मनुष्य की बेचैनी वही है और उसका समाधान भी वही है — भीतर की यात्रा, इसलिए रोज कुछ देर ध्यान जरूर करें।