महाभारत में शिशुपाल के प्रसंग की सीख यह है कि अहंकार की वजह से बार-बार किसी का अपमान नहीं करना चाहिए। चेदी राज्य का राजा शिशुपाल और श्रीकृष्ण रिश्ते में भाई-भाई थे। लेकिन, इनका रिश्ता बहुत अच्छा नहीं था। शिशुपाल और रुक्मी की मित्रता थी। ये दोनों ही श्रीकृष्ण को पसंद नहीं करते थे। रुक्मी चाहता था कि उसकी बहन रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से हो। विवाह की तैयारियां भी हो गई थीं।
रुक्मिणी श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं। जब ये बात श्रीकृष्ण को मालूम हुई तो उन्होंने रुक्मिणी का हरण करके विवाह कर लिया। रुक्मी और श्रीकृष्ण का युद्ध भी हुआ था, जिसमें रुक्मी पराजित हुआ। इस प्रसंग के बाद शिशुपाल श्रीकृष्ण को परम शत्रु मानने लगा। श्रीकृष्ण ने शिशुपाल की मां यानी उनकी बुआं को ये वरदान दिया था कि वे शिशुपाल की सौ गलतियां माफ करेंगे।
शिशुपाल एक के बाद एक गलतियां करता रहा। उसे लग रहा था श्रीकृष्ण उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं। जबकि श्रीकृष्ण उसकी सौ गलतियां पूरी होने का इंतजार कर रहे थे।
जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ आयोजित किया तो उसमें श्रीकृष्ण और कौरवों के साथ ही शिशुपाल को भी आमंत्रित किया। आयोजन में श्रीकृष्ण को विशेष सम्मान दिया जा रहा था, जिसे देखकर शिशुपाल का अहंकार जाग गया और वह क्रोधित हो गया।
शिशुपाल ने भरी सभा में श्रीकृष्ण का अपमान करना शुरू कर दिया। पांडवों उसे रोक रहे थे, लेकिन वह नहीं माना। श्रीकृष्ण उसकी गलतियां गिन रहे थे। जैसे शिशुपाल की सौ गलतियां पूरी हो गईं, श्रीकृष्ण ने उसे सचेत किया कि अब एक भी गलती मत करना, वरना अच्छा नहीं होगा।
शिशुपाल अहंकार में सबकुछ भूल गया था। उसका खुद की बोली पर ही नियंत्रण नहीं था। वह फिर से अपमानजनक शब्द बोला। जैसे ही शिशुपाल ने एक और गलती की, श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। इसके बाद कुछ ही पल में सुदर्शन चक्र ने शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया।
प्रसंग की सीख
इस प्रसंग की सीख यह है कि कभी भी अहंकार न करें और किसी का अपमान नहीं करना चाहिए। अहंकार में व्यक्ति का अपने शब्दों पर ही नियंत्रण नहीं रह पाता है। वह लगातार दूसरों का अपमान करता है। ये एक ऐसी बुराई है, जिसकी वजह से रावण, कंस और दुर्योधन जैसे महाशक्तिशाली योद्धाओं के पूरे-पूरे कुल नष्ट हो गए।