कहते हैं कि इंसान की इच्छाएं अनंत होती हैं— जैसे समुद्र की लहरें, जो कभी रुकती नहीं। भौतिकता की दौड़ में हम जितना भी पा लें, मन फिर भी और अधिक चाहने लगता है। आज के भौतिक युग में जब हर व्यक्ति ज्यादा पाने की लालसा में जी रहा है, एक प्राचीन कथा हमें सिखाती है कि वास्तव में सच्चा सुख कहां है? आइए, एक पुराने राजा और एक साधु की यह प्रेरणादायक कथा पढ़ें, जो हमें आत्मचिंतन करने के लिए मजबूर कर देती है। कथा: बहुत समय पहले की बात है। एक समृद्ध लेकिन घमंडी राजा था, जिसे अपने वैभव और सामर्थ्य पर अत्यंत गर्व था। अपने जन्मदिन के अवसर पर उसने घोषणा की कि वह किसी एक व्यक्ति की सारी इच्छाएं पूरी करेगा, बस एक दिन के लिए उसकी भगवान बनने की लालसा थी। दरबार सजा, उत्सव का आयोजन हुआ और प्रजा राजा को बधाई देने पहुंची। उन्हीं में एक साधु भी थे, सरल, शांत और प्रसन्नचित्त। राजा ने साधु से आग्रह किया, “महाराज! आज मेरे जन्मदिन पर मैं आपकी सभी इच्छाएं पूरी करना चाहता हूं। आप जो मांगेंगे, मैं दूंगा।” साधु मुस्कराए और बोले, “राजन्, मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं पूर्ण हूं।” लेकिन राजा का अहंकार टकरा गया। वह जिद पर उतर आया। अंततः संत ने कहा, “ठीक है राजन्, यदि आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो मेरे इस छोटे से पात्र को सोने के सिक्कों से भर दीजिए।” राजा हंसा। यह तो तुच्छ कार्य था! उसने सिक्के डाले, लेकिन आश्चर्य! सिक्के डालते ही गायब हो गए। राजा हैरान। उसने और सिक्के मंगवाए, फिर भी वही हुआ। धीरे-धीरे पूरा खजाना उस बर्तन में उड़ेल दिया गया, लेकिन पात्र नहीं भरा। आखिरकार, थक-हार कर राजा ने संत से पूछा, “ये जादुई पात्र आखिर भर क्यों नहीं रहा?” संत मुस्कराए और बोले, “महाराज, यह पात्र आपके मन का प्रतीक है। जिस तरह आपका मन धन, पद, वैभव, ज्ञान, सत्ता से भी कभी संतुष्ट नहीं होता है, ठीक वैसे ही यह पात्र कभी नहीं भरेगा।” ये केवल एक चमत्कारी बर्तन की नहीं, बल्कि हर इंसान के अंतर्मन की कहानी है। हम सबके भीतर एक ऐसा पात्र है जो कभी भरता नहीं है, चाहे कितना भी पा लें, क्योंकि सच्ची पूर्ति बाहरी संसाधनों से नहीं, आंतरिक संतोष और भक्ति से होती है। जब तक हम अपने भीतर झांकना नहीं सीखते, तब तक जीवन की इस दौड़ में हम भागते ही रहेंगे, थकते रहेंगे, लेकिन कभी कहीं पहुंच नहीं पाएंगे। कथा की सीख इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि सच्चा सुख संतोष में है, घमंड से दूर रहकर, और ईश्वर की भक्ति में मन लगाकर। जो मनुष्य जितना अधिक संतुष्ट है, वही वास्तव में सबसे समृद्ध है। “मन का पात्र कभी नहीं भरता, जब तक उसमें संतोष और भक्ति का अमृत न डाला जाए।”