सीबीएसई ने शिक्षा सत्र 2020-21 में नौवीं से बारहवीं तक की कक्षाओं के पाठ्यक्रम में 30 फीसदी की कमी करने का फैसला लिया है। एक्सपर्ट से जानते हैं क्यों लिया गया ये फैसला और क्या होगा इसका असर?
फैसले का मकसद सबको बराबरी के मौके देना
सीबीएसई काउंसलर, शिक्षा विशेषज्ञ डॉ. शिखा रस्तोगी कहती हैं कि मानव संसाधन मंत्रालय ने मेन कांसेप्ट्स को बरकरार रखते हुए सिलेबस को 30 फीसदी कम करने का निर्णय इसलिए लिया है, क्योंकि फिलहाल स्कूल बंद होने और पढ़ाई के नुकसान के कारण स्टूडेंट्स, पैरेंट्स और टीचर्स पर इस बात का काफी मानसिक तनाव है कि कोर्स कैसे खत्म होगा। शहरी क्षेत्रों और बड़े स्कूलों के स्टूडेंट्स तो किसी तरह ऑनलाइन क्लासेस के जरिए अपनी पढ़ाई कर रहे हैं, लेकिन कस्बों की छोटे स्कूलों और खासकर सरकारी स्कूलों के छात्रों के पास ऐसी सुविधाएं नहीं हैं। ऐसे में फैसले का मकसद यह है कि स्कूल खुलने पर ऐसे स्कूलों में भी कोर्स को पूरा करवाने में दिक्कत न हो और इनके छात्र भी सुविधासम्पन्न छात्रों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें।
क्या भावी करिअर पर फर्क पड़ेगा?
कई लोगों का मानना है कि यह ऐसा साल है जिसमें हमें काफी कुछ एडजस्ट करके चलना होगा। लेकिन छात्र खासकर वे जो इस शिक्षा सत्र में बोर्ड परीक्षाओं में बैठेेंगे, उनके हिसाब से देखें तो उनका हर साल कीमती है। इसलिए कम से कम बोर्ड के छात्र इस साल भी समझौता नहीं कर सकते। तो भले ही CBSE ने कुछ अध्याय हटा दिए हैं, लेकिन उसने यह निर्देश नहीं दिए हैं कि स्कूल या शिक्षक उन्हें पढ़ाएं भी नहीं। बस उनमें से परीक्षा में सवाल नहीं पूछे जाएंगे। यानी शिक्षक परीक्षा के तनाव से हटकर इन अध्यायों को पढ़ाएं और छात्र भी उन्हें पढ़ें। उन्हें पढ़ना भविष्य की प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के नजरिए से भी उचित होगा। वैसे सच यह भी है कि कुछ अध्यायों को हटाने भर से कॅरियर पर कोई असर नहीं पड़ने वाला।
बचे अध्यायों का हो विस्तार से अध्ययन
सहोदय की पूर्व चेयरपर्सन, शिक्षा विशेषज्ञ रीना खुराना के मुताबिक अधिकांश लोगों ने पाठ्यक्रम को कम करने का समर्थन किया है, लेकिन कुछ इसके विरोध में भी हैं। सवाल यह है कि हम अब भी पूरे पाठ्यक्रम को उसकी क्वांटिटी में ही क्यों देख रहे हैं? हमें पढ़ाई का तरीका बदलने और पाठ्यक्रम की गुणवत्ता बढ़ाने की जरूरत है। अभी हमारे यहां वर्टिकल पढ़ाई हो रही है, यानी थोड़ी-थोड़ी जानकारी हम हर चीज की दे रहे हैं, जबकि लैटरल थिंकिंग के साथ पढ़ाई होनी चाहिए। मतलब अगर लोकतंत्र पढ़ा रहे हैं तो उसका हर एक पहलू पढ़ाया जाना चाहिए। पढ़ाई का तरीका रिसर्च बेस्ड होना चाहिए। इसलिए कुछ अध्याय हटा दिए गए तो अच्छा ही है कि परीक्षा का तनाव कम हो गया। लेकिन बाकी अध्याय इतने डिटेल में पढ़ाने चाहिए कि उसका पूरा नॉलेज मिल सके।
कैसी हो भविष्य की पढ़ाई?
फिनलैंड में बहुत ज्यादा ठंड पड़ती है। इसलिए वहां सप्ताह में केवल तीन दिन स्कूल लगती है। बाकी तीन दिन वीडियोज़ और ऑनलाइन पढ़ाई होती है। इसे ब्लैंडेड टीचिंग कहा जाता है। भारत में हम पहले इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे। लेकिन कोरोना काल ने एक तरह से स्कूलों, शिक्षकों और अभिभावकों को यह भरोसा दे दिया है कि वे भी अब ब्लैंडेड टीचिंग की ओर जा सकते हैं। हां, हर जगह यह संभव नहीं है। लेकिन जिन भी स्कूलों में यह संभव है, उन्हें कोरोना काल के बाद इसे नियमित करना चाहिए। अनुमान लगाइए कि अगर बच्चे तीन दिन ही स्कूल जाएं तो इससे उनकी कितनी ऊर्जा, कितना समय, कितना पैसा बच सकता है। इसका इस्तेमाल वे और शिक्षक कुछ और एक्सप्लोर करने में कर सकते हैं।
तनाव झेलने की क्षमता बढ़ाने पर भी काम हो
साइकोलॉजिस्ट डॉ. आशुतोष श्रीवास्तव बताते हैं कि इस समय हर व्यक्ति मनोवैज्ञानिक दबाव में है, फिर वह स्कूल-कॉलेज का छात्र हो, शिक्षक हो या अभिभावक हो। तो सीबीएसई ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश यह की कि पाठ्यक्रम कम करके तनाव या दबाव को कम कर दो। मुझे लगता है कि पिछले 15 सालों के दौरान हमने शिक्षा के साथ काफी समझौते किए हैं और केवल इसलिए कि बच्चों का तनाव और दबाव कम हो सके। इसके लिए हमने परीक्षा की प्रणाली को आसान बनाने का प्रयास किया।
पाठ्यक्रमों का हिस्सा बने मेंटल हेल्थ
बच्चों को थोक में जो नंबर्स मिल रहे हैं, वह इसी का नतीजा है। जिस तरह नंबर्स आ रहे हैं, यह अच्छा नहीं है, क्योंकि 15-16 साल के बच्चे को जब इतनी आसानी से मिल जाएगा तो फिर लर्निंग कैसे हो पाएगी? हमें तो बच्चों में तनाव को झेलने की क्षमता बढ़ाने पर काम करना चाहिए था, जबकि हम यह कोशिश करते रहे कि तनाव कैसे कम हो सके। बच्चे अधिक से अधिक तनाव को कैसे झेल सके, इसके लिए हमें मेंटल हेल्थ को पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाना चाहिए। यह पाठ्यक्रम इस तरह का होना चाहिए कि स्कूल में बच्चा हर दिन कुछ ऐसा सीखें जो उसे तनाव को झेलने की शक्ति दें। यही बाद में उसका तनाव कम करने का ही काम करेगा।
फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली बेहतर क्यों?
- वहां भी हमारे यहां की तरह कई तरह के पाठ्यक्रम थे। सबसे पहले पाठ्यक्रम एकसमान किया गया ताकि किसी भी निर्णय का असर सभी छात्रों पर एक तरह से हो।
- वहां हाईस्कूल तक परीक्षा का सिस्टम नहीं है और इसलिए नंबर्स का सिस्टम भी नहीं है। हालांकि स्कूल के स्तर पर छात्रों का मूल्यांकन किया जाता है, लेकिन डिस्क्रिप्शन (वर्णन) में।
- शिक्षकों की भर्ती के लिए वहां जरूर कड़ी परीक्षा होती है। शिक्षकों को तैयार करने में सबसे ज्यादा पैसा खर्च किया जाता है।