2000 रुपए लेकर मुंबई आए राजकुमार गुप्ता:भूखे रहे, कीड़ों के बीच सोए, पहली फिल्म को नहीं मिल रहा था प्रोड्यूसर, आज फिल्में 100 करोड़ पार

साल 2008 में ‘आमिर’ नाम की एक फिल्म आई थी। उस फिल्म के पोस्टर पर लिखा था- ‘कौन कहता है, आदमी अपनी किस्मत खुद लिखता है?’, लेकिन इस फिल्म को लिखने और बनाने वाले राइटर-डायरेक्टर राजकुमार गुप्ता ने फिल्म इंडस्ट्री में अपनी किस्मत खुद लिखी है। मायानगरी में किस्मत बनाने के लिए राजकुमार 90 के दशक के आखिर में मुंबई आ गए थे, लेकिन उनकी पहली फिल्म साल 2008 में आई। इस बीच का जो हासिल रहा, वो संघर्ष था। ऐसा संघर्ष, जहां दो टाइम के खाने के बाद अगले निवाले के लिए सोचना पड़े। शेयरिंग के जिस घर में रहे वहां, बारिश के दिनों में कीड़े पड़ जाते थे। भूखे रहकर, कीड़ों के बीच जीवन गुजारा। इस संघर्ष से निकलकर एक मुकाम तक पहुंचने वाले राजकुमार आज इंडस्ट्री के ट्रेंड सेटर डायरेक्टर हैं। लगभग दो दशक के करियर में गिनकर 6 फिल्में और एक सीरीज बनाई है। फिल्में ऐसी, जिन्होंने इंडस्ट्री में ट्रेंड सेट किया है। आज की सक्सेस स्टोरी में राइटर, डायरेक्टर राजकुमार गुप्ता की कहानी… कॉलेज के दौरान लिखने में दिलचस्पी आई मेरा बचपन झारखंड के हजारीबाग शहर में बीता। हजारीबाग एक छोटा शहर है, जिसके बारे में लोगों को ढंग से पता भी नहीं। मैंने दसवीं तक की पढ़ाई यहीं से की। बारहवीं के लिए बोकारो चला गया क्योंकि हजारीबाग में अच्छे स्कूल नहीं थे। बारहवीं के बाद ग्रेजुएशन के लिए दिल्ली जाना पड़ा क्योंकि यहां ग्रेजुएशन के लिए अच्छा विकल्प नहीं था। रामजस कॉलेज में ग्रेजुएशन के दौरान मेरी रुचि लिखने में जगी। पढ़ाई खत्म होने के बाद मुझे एहसास हुआ कि मुझे लिखने का शौक है। कॉलेज के दौरान मैं जिस कॉलोनी में अपने दोस्तों के साथ रहता था, वहां हमारे एक सीनियर भी रहते थे। वो किसी एडवर्टाइजिंग कंपनी में कॉपी राइटर थे। उन्होंने एक बार अपना कुछ लिखा दिखाया था। उसे देखकर मुझे लगा कि ये तो मैं भी लिख सकता हूं। बैंक में नौकरी ना लगे इसलिए सारे जवाब गलत दिए छोटे शहरों में लोगों की ख्वाहिश ही डॉक्टर, इंजीनियर और आईएएस-आईपीएस की होती है। मेरा पापा बैंकर थे। मेरे माता-पिता भी चाहते थे कि मैं कोई सरकारी नौकरी करूं। पिताजी की ख्वाहिश थी कि मैं अगर आईएएस-आईपीएस न भी बनूं तो कम से कम बैंकर बन जाऊं। मुझ पर इस बात का प्रेशर रहा। पहले के समय में छोटे शहरों के बच्चे फिल्ममेकर बनना है, जैसे सपने नहीं देखते थे। मुझे भी नहीं पता था कि मैं फिल्ममेकर बन जाऊंगा। छोटे शहरों के बच्चे तो दसवीं-बाहरवीं कैसे पास करना है, बस इतना ही सोचते हैं। मैंने ग्रेजुएशन खत्म करने के बाद बैंक में ऑफिसर रैंक का एक एग्जाम दिया और रिटन निकाल लिया था, लेकिन उस समय तक मुझे पता लग गया था कि मैं सरकारी या किसी भी तरह की नौकरी के लिए नहीं बना हूं। मेरा चेन्नई में इंटरव्यू था। मैं वहां गया और मुझसे जो भी सवाल पूछा गया, मैंने जानते हुए भी अलग जवाब दिया। फिर मैंने इसी फील्ड में कुछ करने का सोचा और मुंबई आ गया। यहां आकर मैंने लिखना सीखा। अनुराग कश्यप की कुछ फिल्मों में एसोसिएट डायरेक्टर रहा। इस दौरान भी मैं अपने लिए लिखता रहता था। उस इंटरव्यू की वजह से मेरी नौकरी नहीं लगी। ये बात मैंने अपने पिताजी को अपनी पहली फिल्म के प्रीमियर के बाद बताई थी। दो-ढाई हजार रुपए लेकर मुंबई आ गया था छोटे शहरों के लोग मुंबई को सिर्फ फिल्मों में ही देखते थे। फिल्म इंडस्ट्री के बारे में कोई अवेयरनेस नहीं थी। लोग इस जगह को करियर से जोड़कर नहीं देख पाते थे। हमारे जैसे लोगों के लिए ये सिर्फ मनोरंजन की जगह थी। मैं ग्रेजुएशन के बाद घर में बिना किसी को बताए यहां आ गया था। मेरे पास पॉकेटमनी के दो-ढाई हजार रुपए ही थे। उन पैसों से ही मैंने अपनी जर्नी की शुरुआत की थी। मैं यहां किसी को भी नहीं जानता था। मैं अनुराग कश्यप से 1999 या 2000 में मिला था। जब मैं मिला था, तब वो भी कुछ नहीं कर रहे थे। उनकी फिल्म ‘पांच’ बन गई थी और रिलीज के लिए अटकी पड़ी थी। अनुराग ने मेरा काम देखा था और वो मुझसे इंप्रेस थे। वो पेजर का जमाना था। हम दोनों पेजर के जरिए एक-दूसरे के टच में रहे। जब अनुराग ने ‘ब्लैक फ्राइडे’ और ‘नो स्मोकिंग’ बनाई तो मैं उसमें एसोसिएट डायरेक्टर था। इसके साथ मेरा स्ट्रगल चल ही रहा था। मैं अपनी राइटिंग पर भी काम कर रहा था। दो वक्त का खाना मिल जाना सौभाग्य था मैं 20-21 का रहा हूंगा, जब बस दो-ढाई हजार लेकर मुंबई आ गया था। लिमिटेड बजट था, ऐसे में शुरुआत में दो वक्त के खाने के लिए भी मुझे सोचना पड़ा। मुझे तय करना होता था कि दिन का खाना खाऊं या रात का क्योंकि इतने पैसे नहीं थे कि मैं दोनों वक्त खाना खा पाऊं। संघर्षों के दिनों में वर्सोवा गांव में रहता था। वहां एक छोटे से रूम में चार-पांच लोगों के साथ रहता था। बारिश के दिनों में वो कमरा नरक बन जाता था। पानी आने के बाद पूरे रूम में कीड़े रेंगते थे। ये मेरे संघर्ष के दौर का अहम हिस्सा था, लेकिन मुंबई आकर करियर बनाने की चॉइस भी मेरी ही थी। मैंने बुरे दिनों को भी सिर-माथे लगाया। घर वालों को बिना बताए आया था, उनसे पैसे मांग नहीं सकता था। तमाम चुनौतियों के बाद भी मैंने सोच लिया था कि अब जब घर से निकल गया हूं तो वापस नहीं जाऊंगा। संघर्ष की राह मुझे जहां ले जाती, मैं जाने के लिए तैयार था। मैंने स्ट्रगल से भी कई चीजें सीखीं। मैंने चीजों की वैल्यू भी तभी सीखी। बेरोजगारी के दौर में दोस्तों से मिलने से बचता था मेरी पहली फिल्म ‘आमिर’ 2008 में आई थी। मेरे लिए 2003-2006 का दौर बहुत मुश्किल भरा रहा। मैं जब मुंबई आया, उस वक्त 20-21 साल का था। उस वक्त टीवी इंडस्ट्री अच्छी चल रही थी और वहां पैसे भी अच्छे मिल रहे थे। मेरे दोस्त उस वक्त 60 हजार रुपए की नौकरी कर रहे थे। जो आज के हिसाब से 3-4 लाख रुपए की होगी। वो लोग खूब पार्टी करते थे। मुझे भी कभी-कभार अपनी पार्टियों में बुलाते थे, लेकिन मैं नहीं जाता था। मैं उन पार्टियों में मुझसे होने वाले सवाल से बचना चाहता था। मैंने टीवी न करके फिल्म डायरेक्शन और राइटिंग को अपना सपना बनाया था। उन पार्टियों में क्या कर रहे हो? फिल्म पता नहीं कब बनेगी या एक अच्छी जॉब क्यों नहीं ले लेते। ऐसे चीजें सुनने को मिलती थीं। ये सारी बातें अकेले में परेशान करती थीं। इन बातों से डर लगता था। अब लगता है कि अगर मैंने खुद पर भरोसा नहीं रखा होता और आसान तरीका चुन लिया होता तो आज मेरी फिल्में नहीं बनतीं। मैंने इंडस्ट्री में इंटर्न के तौर पर काम करना शुरू किया था। फिर अनुराग से जुड़ा, लेकिन उनका काम कभी चलता था, कभी नहीं। ऐसे में मेरे मित्र रितेश शाह, जो उस वक्त टीवी में बड़ा नाम थे। वो मुझे कुछ लिखने का काम दे देते थे। उन पैसों से कुछ वक्त निकल जाता था। सर्वाइव करने के लिए कुछ ना कुछ फ्रीलांस वर्क करता रहता था। कई लोगों के लिए मैंने घोस्ट राइटिंग भी की। पहली फिल्म ‘आमिर’ के लिए ज्वेलर के पास गया ‘आमिर’ बनाने से पहले मैंने चार और स्क्रिप्ट लिखी थी, जो मुझे पसंद नहीं आई। अपनी पांचवीं स्क्रिप्ट को पढ़कर लगा कि ये अच्छी लिखी है। इस पर फिल्म बन सकती है। जब मैं ‘आमिर’ बनाना चाहता था, तो मैं कहानी लेकर न जाने कितने लोगों के पास गया। किसी ने मुझे पर भरोसा नहीं दिखाया। मेरा साथ लोगों को दो समस्या दिख रही थी। एक तो उस वक्त के हिसाब से फिल्म की कहानी थोड़ी हटकर थी। दूसरी सबसे बड़ी दिक्कत थी कि मैं न्यूकमर था। मैंने अनुराग कश्यप की जिन दो फिल्मों में काम किया था, वो उस वक्त तक रिलीज भी नहीं हुई थीं। लोगों को लग रहा था कि ये क्या फिल्म बनाएगा? मैं बहुत शिद्दत से अपनी फिल्म बनाना चाहता था। इस चक्कर में ब्रोकर, ज्वेलर्स, प्राइवेट फंडर्स तक के पास गया। मुझे याद है, मैंने जावेरी बाग में एक ज्वेलर को भी कहानी सुनाई ताकि वो उस फिल्म में पैसे लगा दे। उसने कहानी सुनी और कहा अच्छी है, लेकिन पैसे नहीं लगाए। उस समय लोग मुझे सलाह देते थे कि इसमें किसी बड़े स्टार को ले लो। हीरोइन और फिल्म में गाने ले आओ। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि फिल्म को लेकर किया गया मेरा हर फैसला सही था। मेरी ही नहीं, कई लोगों की डेब्यू फिल्म थी आमिर तमाम इनकार के बाद मेरी फिल्म को यूटीवी स्पॉटबॉय ने प्रोड्यूस किया था। उस वक्त फिल्ममेकर विकास बहल उसके हेड थे। मैं पहली बार विकास से एक कॉमन फ्रेंड के जरिए मिला था। हम जुहू जेडब्ल्यू मैरिएट के कॉफी शॉप में मिले। मैंने विकास को पूरी कहानी नैरेट की। जैसे ही मैंने कहानी खत्म की, उन्होंने कहा कि हम ये फिल्म बना रहे हैं। इस तरह से फिल्म की जर्नी शुरू हुई। यूटीवी के अंदर कई दफा कहानी को नैरेट किया गया। कुछ लोगों को कहानी पर यकीन था, कुछ लोगों को नहीं। हालांकि फिल्म बनी। ये फिल्म सिर्फ मेरी ही पहली फिल्म नहीं थी, कई लोग जो उस फिल्म से जुड़े थे, उनका पहला काम था। बतौर प्रोड्यूसर विकास बहल की पहली फिल्म थी। म्यूजिक कंपोजर अमित त्रिवेदी ने इस फिल्म से अपना करियर शुरू किया। फिल्म के जो सिनेमेटोग्राफर थे, अल्फोंस रॉय उनकी पहली फिल्म थी। गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य की पहली फिल्म थी। एक्टर राजीव खंडेलवाल की भी डेब्यू फिल्म थी। ये अनगिनत लोगों की डेब्यू फिल्म थी। पूरी फिल्म को महज 22 दिन के अंदर 1 करोड़ 75 लाख में शूट किया गया था। हम फिल्म की शूटिंग सुबह सात से शाम पांच बजे तक करते थे। करियर की पहली-दूसरी फिल्म ही लीक से हटकर बनाई ‘आमिर’ के बाद मैंने दूसरी फिल्म ‘नो वन किल्ड जेसिका’ भी यूटीवी के साथ बनाई। साल 2011 में दो फीमेल लीड को लेकर फिल्म बनाना बहुत मुश्किल था। लोगों को लग रहा था कि बिना हीरो वाली फिल्म तो नहीं चलेगी। लोगों की राय थी कि फीमेल ओरिएंटेड फिल्म कौन देखेगा? लेकिन मेरा नजरिया बिल्कुल अलग था। मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा कि मैं दो फीमेल लीड के साथ पिक्चर बना रहा हूं। मैंने उन्हें हमेशा ही फिल्म के मेन लीड के तौर पर देखा। वो फिल्म इतनी डॉक्यूमेंटेंड थी, लोगों को उस ट्रैजिक घटना के बारे में बहुत कुछ पता था। ऐसे में उस सब्जेक्ट को फिल्म के रूप में पिरोना एक चैलेंज था। रिसर्च के दौरान मैं सबरीना जी से मिला था। आज वो इस दुनिया में नहीं हैं। रिसर्च खत्म होने के बाद मैं बहुत ज्यादा भावुक हो गया था। मुझे नहीं पता था कि मैं ये लिख भी पाऊंगा या नहीं, शूट तो बहुत दूर की बात थी। फिर मैंने सोचा, चलो लिख लेता हूं, अगर खराब भी लिखा तो लोगों को पता नहीं लगेगा। राइटिंग की खूबसूरत बात ये है कि ये अकेले की प्रक्रिया है। पहले 14 पेज लिखने के बाद जो कहानी निकलकर आई, उसके बाद मेरे अंदर कॉन्फिडेंस आया। पूरी कहानी लिखने के बाद जब मैंने लोगों को कहानी सुनाई तो सब हैरान रह गए। 9 करोड़ में बनी इस फिल्म ने उस वक्त 47 करोड़ से ज्यादा की कमाई की थी। ‘घनचक्कर’ और ‘इंडिया मोस्ट वांटेड’ समय से पहले की फिल्म मैंने करियर की पहली-दूसरी फिल्म ही सफल बनाकर खुद को प्रूव कर दिया था। साल 2013 में इमरान हाशमी और विद्या बालन को लेकर मैंने ‘घनचक्कर’ बनाई। ये फिल्म फ्लॉप नहीं थी, लेकिन शायद लोगों को इतनी समझ नहीं आई। ये अपने समय से पहले की फिल्म थी। मुझे आज भी कहा जाता है कि अगर वो फिल्म अभी के समय रिलीज होती तो हिट होती। 2019 में मैंने इंटेलिजेंस एजेंसी को लेकर ‘इंडिया मोस्ट वांटेड’ बनाई थी। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बिल्कुल नहीं चली, लेकिन इसकी कहानी काफी यूनीक थी। इसके लिए लोग मुझसे कहते हैं कि अगर मसाला फिल्म होती तो चल जाती। मैंने ‘इंडिया मोस्ट वांटेड’ इसलिए बनाई थी कि असल कहानी जैसी थी, मुझे वो वैसे ही पसंद थी। ‘रेड’ ने करियर में कॉमर्शियल सक्सेस का ठप्पा लगाया मैंने अपने करियर में लीक से हटकर चलना ही चुना था। साल 2018 में मैंने अजय देवगन को लेकर ‘रेड’ बनाई। इसमें हीरो कोई एक्शन नहीं कर रहा है। गाने भी बड़े नॉर्मल थे। न ही कोई ऐसा कॉमर्शियल एलिमेंट था, जिसमें हीरो पूरी दुनिया जीत लेता है और विलेन को पछाड़ देता है। हमने बस एक कहानी कही और ऑडियंस ने उसे सिर-माथे लिया। ऑडियंस किरदारों के इमोशनल पक्ष से जुड़ गई। इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ दिए थे। इस फिल्म की सफलता ने ही मुझे रेड-2 के लिए प्रोत्साहित किया। रेड-2 हाल ही में रिलीज हुई और इसे भी ऑडियंस का बहुत प्यार मिल रहा है। ——————————- पिछले हफ्ते की सक्सेस स्टोरी यहां पढ़िए… फिल्म ‘द लंच बॉक्स’ में दिवंगत एक्टर इरफान खान के साथ पर्दे पर एक नया चेहरा दिखा। सीधा-सादा, बिना मेकअप का वो चेहरा लोगों के जेहन पर छप गया। हां, ये बात बहुत कम लोगों को पता है कि लाखों दिल में उतरने से पहले उस चेहरे ने 13 साल लगातार मेहनत की थी, रिजेक्शन भी झेला था। आज उसकी अदायगी की डिमांड बॉलीवुड ही नहीं हॉलीवुड में भी है। पूरी स्टोरी यहां पढ़ें…