भाजपा के लिए तीन विषय उसके 1980 में जन्म और कुछ हद तक उससे भी पहले यानी जनसंघ के जमाने से दिल के करीब रहे हैं। पहला, अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण। दूसरा, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाकर उसे मुख्य धारासे जोड़ना। तीसरा, समान नागरिक संहिता यानी यूनीफॉर्म सिविल कोड।
2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने अपने बूते 302 सीट जीतकर बहुमत हासिल किया। एनडीए को निचले सदन में 353 सीटें मिलीं। साफ था कि भाजपा पर दबाव बढ़ने वाला है। खासकर, उन तीन विषयों का समाधान निकालने का, जो उसके कोर में रहे हैं। इसके बाद उसने क्या और कैसे किया, आइये जानते हैं…
सबसे पहले, बात धारा 370 की
- नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की ओर से गृहमंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त, 2019 को राज्यसभा में संकल्प पेश किया, जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य का विभाजन दो केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में करने का प्रस्ताव किया गया है।
- शाह ने राज्यसभा में पेश संकल्प में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 370 के सभी खंड जम्मू कश्मीर में लागू नहीं होंगे। शाह ने राज्यसभा में जम्मू एवं कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक 2019 भी पेश किया।
- लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की घोषणा की, जहां चंडीगढ़ की तरह विधानसभा नहीं होगी। वहीं, जम्मू-कश्मीर में दिल्ली और पुडुचेरी की तरह विधानसभा होगी। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 9 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 को मंजूरी दी।
- इससे पहले 5 अगस्त, 2019 को राज्यसभा ने और 6 अगस्त, 2019 को लोकसभा ने इस विधेयक को मंजूरी देकर आगे बढ़ाया था। इससे पहले राष्ट्रपति ने अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए संविधान की धारा 35ए और 370 को रद्द किया।
“Article 370 was anti-Women, anti-Dalit and anti-Tribals.”
See what has changed in Jammu Kashmir after nullification of Article 370, a story of justice delivered to Dalits, Women, Gorkhas, West Pakistani Refugees, POJK Displaced Persons, SC/ST and OBCs. pic.twitter.com/lfaJ4wpSDh
— BJP (@BJP4India) August 4, 2020
कैसे बनी बात राम मंदिर की
- भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1980 के दशक में राम जन्मभूमि मंदिर के लिए आंदोलन शुरू किया था। विश्व हिंदू परिषद के नेता इसका सामाजिक-धार्मिक चेहरा थे और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इसे राजनीतिक रंग दिया था।
- मामला अदालतों में था, लिहाजा भाजपा अपने स्तर पर कोई फैसला नहीं ले सकती थी। इसके बाद भी 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2:1 से फैसला सुनाया और विवादित स्थल को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच तीन हिस्सों में बराबर बांट दिया।
- हालांकि, इसके अगले ही साल यानी 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाई। नौ साल सुनवाई हुई। 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने विवादित जमीन पर रामलला विराजमान का हक माना। इस तरह विवाद का पटाक्षेप हुआ।
- लेकिन, यह महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले ही मुस्लिम पक्ष में भी मंदिर के लिए जमीन देने पर सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। भाजपा और संघ के रणनीतिकारों की ओर से इस बारे में प्रयासों की यह शुरुआती सफलता थी।
- सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सुन्नी वक्फ बोर्ड संतुष्ट नहीं था। रिव्यू पिटीशन दाखिल करना चाहता था। लेकिन, सुलह के प्रयास नाकाम रहे। 26 नवंबर, 2019 को खबर आई कि वक्फ बोर्ड रिव्यू पिटीशन दाखिल नहीं करेगा। शांतिपूर्ण तरीके से राम मंदिर का रास्ता साफ हो गया।
- सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के आधार पर राम मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट बना। 5 अगस्त, 2020 को भव्य राम मंदिर के लिए भूमिपूजन हो गया। यानी मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के डेढ़ साल के भीतर राम मंदिर के सपने के साकार होने की शुरुआत हो गई।
पीएम श्री @narendramodi श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का शिलान्यास करते हुए। #JaiShriRam https://t.co/TRcNGerKPk
— BJP (@BJP4India) August 5, 2020
370 और राम मंदिर का भाजपा को क्या मिलेगा लाभ?
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर के लिए भूमिपूजन किया और मंदिर बनने के लिए तीन से चार साल लग जाएंगे। जाहिर है, अगले लोकसभा चुनावों यानी 2024 से पहले यह मंदिर बनकर तैयार होगा।
- लोकसभा चुनाव ही नहीं, उससे पहले इसी साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव और 2022 में होने वाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को इसका लाभ मिल सकता है। कम से कम पार्टी तो यही चाहती है।
- भाजपा सरकार के दो बड़े फैसलों से यह साफ है कि उसने अपने भगवा रंग को सुरक्षित रखा है। वहीं, कांग्रेस महासचिव प्रियंका ने राम का नाम लेकर जरूर स्पष्ट कर दिया है कि उनकी पार्टी अगले कुछ समय में सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनाने वाली है।
आगे क्या? यूनीफॉर्म सिविल कोड पर रहेंगी अब नजरें
- भाजपा का तीसरा सबसे बड़ा मुद्दा रहा है यूनीफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी)। भारत के संविधान का आर्टिकल 44 भी कहता है कि सरकार को इसके लिए प्रयास करने चाहिए। सर्वसम्मति बनाने के प्रयास करने चाहिए।
- दरअसल, यह कोड मुस्लिम पर्सनल लॉ, हिंदू पर्सनल लॉ जैसे धर्म-आधारित कानूनों की जगह पर एक सभी के लिए लागू होने वाले कानून की बात करता है। यह मुख्य रूप से शादी, पैतृक संपत्ति, तलाक और अन्य धार्मिक परंपराओं से जुड़ा है।
- भारत में यूनीफॉर्म क्रिमिनल कोड है, जो अपराध करने पर धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता। इस तरह वह सेकुलरिज्म और एकता-अखंडता कायम रखता है। लेकिन तलाक और पैतृक संपत्ति के मामले में कानूनों में एकरूपता नहीं है।
- यह माना जा रहा है कि राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 का मुद्दा सुलझाने के बाद अब मोदी सरकार की नजर यूनीफॉर्म सिविल कोड पर रहेंगी।
- अगस्त 2018 में लॉ कमीशन ने “रिफॉर्म ऑफ फैमिली लॉ” रिपोर्ट बनाई है। इसमें इस बात की ओर इशारा किया गया है कि महिलाओं और कमजोर तबकों के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। उन्हें यूनीफॉर्म सिविल कोड के जरिये सुरक्षा का छाता देने की जरूरत है।
- सुप्रीम कोर्ट भी कई मामलों में यूनीफॉर्म सिविल कोड की वकालत कर चुका है। हाल ही में जब तीन तलाक के मुद्दे पर फैसला आया और उसके बाद कानून बना तो यूसीसी की मांग तेज हो गई थी।
- तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ा तबका और मुस्लिम स्कॉलर मोदी सरकार के सुर में सुर मिलाते नजर आए थे। लिहाजा, यदि यूनीफॉर्म सिविल कोड को आगे बढ़ाय जाता है तो ज्यादा दिक्कत नहीं होगी।
- हालांकि, कुछ महीनों पहले सरकार ने नागरिकता कानून बदला और उसमें कई नई बातें जोड़ीं। इसे लेकर मुस्लिमों में बहुत गुस्सा था। कोरोनावायरस-प्रेरित लॉकडाउन लागू होने से पहले तक प्रदर्शन होते रहे। इसको देखते हुए यूनीफॉर्म सिविल कोड पर भी विरोध तय है।
- लेकिन, यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संविधान सभा में यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू करने को लेकर मौलिक अधिकारों के अध्याय में सर्वसम्मति नहीं थी। सरदार पटेल के नेतृत्व वाली सब-कमेटी ने 5:4 के बहुमत से यूसीसी को अस्वीकार किया था। स्पष्ट है कि धार्मिक आस्था को यूसीसी पर तरजीह दी थी।
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