क्या झाड़ू के हैंडल पर लिखा होता है कि इसे केवल महिलाएं ही चलाएंगी? क्या वॉशिंग मशीन और गैस स्टोव के मैनुअल में भी ऐसा कुछ लिखा होता है? फिर क्यों ज्यादातर पुरुष घर के कामों में हाथ नहीं बंटाते हैं? कमोबेश हर घर से जुड़े ये सब सवाल उस ऑनलाइन याचिका के अंश हैं जो कोरोनाकाल में घर और रसोई में अचानक बढ़े महिलाओं के कामकाज को लेकर दायर की गई है।
पिटीशन मुंबई में रहने वाली सुबर्णा घोष ने फाइल की है। इस पर तकरीबन 71 हजार से ज्यादा लोग अपने हस्ताक्षर कर चुके हैं। घोष चाहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने किसी संबाेधन में इस मामले पर कुछ बोलें। इस मसले का कोई उपाय सुझाएं और पुरुषों से कहें कि वे भी घर के कामों में अपनी जिम्मेदारी समझें।
सुबर्णा घोष ने शुरू की ऑनलाइन मुहिम
दरअसल, लॉकडाउन के दौरान सुबर्णा पर घर और ऑफिस के कामकाज का बोझ आ पड़ा। याचिका उन्हीं के अनुभवों का सार और उनके ही घर की कहानी है। बल्कि यूं कहें-एक तरह से घर-घर की कहानी है। तमाम महिलाएं ऐसी ही परिस्थितियों का सामना कर रही हैं। घरेलू कामकाज की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के ऊपर होती है। खाना बनाना, साफ-सफाई, कपड़े धोना, तह करना, बिस्तर इत्यादि वही करती हैं। सुबर्णा एक चैरिटी संस्था भी चलाती हैं। उनके पति बैंकर हैं।
ऑनलाइन पिटीशन का मकसद- लोगों की सोच में आए बदलाव
वह कहती हैं कि यह अपेक्षा भी महिलाओं से ही की जाती है कि इतना सब कुछ करने के बाद वे अपने ऑफिस का काम भी पूरा करें। लॉकडाउन के दौरान उन्हें खुद भी अपने कामकाज से सबसे ज्यादा समझौता करना पड़ा। उनके दफ्तर के काम पर असर पड़ा। वर्क फ्रॉम होम और घर का कामकाज। वह बुरी तरह से थक जाती थीं। परिवार में संतुलन बिगड़ने लगा था। उन्होंने इसकी शिकायत भी की। हालांकि, बाद में ऐसी स्थितियों में कुछ बदलाव आया। घोष के मुताबिक यह एक मूलभूत सवाल है। लोग इस पर बात क्यों नहीं करना चाहते हैं? लोगों की सोच बदलना ही इस याचिका का मकसद है।
मोदी को संबोधित करते हुए इन पंक्तियों में बताई ‘मन की बात’
- लॉकडाउन के बहाने से यह बात याद आई
- घरबंदी मर्दों को क्या किसी ने नहीं समझाई
- घर का काम औरत का है, बोलके उसने ठुकराया
- जीडीपी की बात छोड़ो, अपनों ने भी भुलाया
- तब सोचा क्यों न मोदीजी से बात चलाएं
- कि अगले स्पीच में मर्दों को ये याद दिलाएं
- घर का काम हर दिन है सबका
- लॉकडाउन में फिर काम क्यों बढ़ता?
- भागीदारी ही है जिम्मेदारी
- क्या बराबरी नहीं इंडिया को प्यारी?