श्रीमद् भगवद् गीता के तीसरे अध्याय की शुरुआत में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे केशव आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ मानते है, फिर भी मुझे कर्म करने के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हैं?
इस प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म का महत्व समझाया था। श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।। (गीता-3.22)
अर्थ- श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ। मेरे लिए तीनों लोकों में कोई भी कर्तव्य नहीं है, इस पूरी सृष्टि में मेरे लिए कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसे मैं प्राप्त नहीं कर सकता। फिर भी मैं कर्तव्य पूरे करने में ही लगा रहता हूं।
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। (गीता 3.23)
अर्थ- हे पार्थ। अगर मैं सतर्क रहकर कर्तव्य कर्म न करूं तो इससे बहुत नुकसान हो जाएगा। सभी लोग मेरे द्वारा किए गए कर्मों का ही अनुसरण करते हैं। जैसा मैं करता हूं, सभी वैसे ही कर्म करते हैं। अगर मैं कर्म नहीं करूंगा और तुम्हें कर्म करने के लिए प्रेरित नहीं करूंगा तो ये देखकर सभी इंसान अपने कर्म से भटक जाएंगे। पूरी सृष्टि के लिए ये हानिकारक है। इसीलिए पूरी सृष्टि को कर्म करते रहने का संदेश देने के लिए मैं धर्म का पालन करते हुए अपने कर्म करता हूं।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम्हें सिर्फ अपने कर्तव्य को पूरा करने का कर्म करते रहना चाहिए।
ये है महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले का प्रसंग
श्रीकृष्ण की सभी कोशिशों के बाद भी कौरव और पांडवों के बीच होने वाला युद्ध नहीं टल सका और दोनों पक्षों की सेनाएं आमने-सामने आ गई थीं। कौरवों की सेना में दुर्योधन, शकुनि के साथ भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अश्वथामा जैसे महारथी थे। अर्जुन कौरव पक्ष में अपने वंश के आदरणीय लोगों को देखकर दुखी हो गए थे। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि मैं भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य पर बाण नहीं चला सकता। ऐसा कहते हुए अर्जुन ने शस्त्र रख दिए थे। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाने के लिए गीता का ज्ञान दिया था।