कहानी : चौकीदारिन माई
लेखक : केदार शर्मा ‘निरीह’
गांव में सब चौकीदारिन माई कहते थे उन्हें। सुनते थे कि वहां के नवाब ने उसके पति को अपने इलाक़े का चौकीदार नियुक्त किया था। लम्बी मूंछें, विशाल क़द-काठी, गठीला शरीर, रोबदार चेहरा। घोड़े पर बैठकर निकलते तो चोर-डाकुओं की रूह कांप जाती। अब तो उनको गुज़रे अरसा हो गया। चौकीदारिन माई उनकी दूसरी पत्नी और क़रीब दस साल छोटी थीं।
मध्यम क़द-काठी, गांव की सादगी-भरी वेश-भूषा, पैरों में चांदी की मोटी-मोटी कड़ियां, गौर वर्ण, ललाट पर चंदन का पीला टीका, चेहरे पर वृद्धावस्था को दस्तक देती झुर्रियां, माथे पर चांदी-से चमकते श्वेत केश, पर चाल और आवाज़ में युवतियों जैसा जोश। कुल मिलाकर यह था चौकीदारिन माई का रूप। वैसे तो वह बेटे-बहुओं के पास रह रही थीं, लेकिन घर पर वह मुश्किल से ही रुक पाती थीं।
दाई भी थीं, तो घरेलू नुस्ख़ों का खज़ाना लिए नर्स भी। परम्पराओं को समझने वाली विशेषज्ञ भी थीं, तो गांव भर की महिलाओं के लिए एक सास, सखी-सहेली, और भरोसेमंद सहायक भी थीं। कभी-कभी महिलाए हंसी-ठिठोली करतीं- ‘माई, भगवान ने एक साथ सारे गुन आपको ही क्यों दे दिए? हमसे क्या दुश्मनी थी?’ माई हंसकर रह जातीं, ‘अच्छा हुआ मेरी बहना, नहीं तो चकरघिन्नी हो जाती, मेरी तरह। पर जो चाहता है वह सीख जाता है। बिना गुणों के तो इंसान रद्दी काग़ज़ से भी बदतर है।’
गांव के एक रहवासी रामू की मां पांच बच्चों को छोड़कर चल बसी थी। दो भाई और दो बहनें उससे छोटी थीं। पिताजी बाहर नौकरी करते थे। वह ख़ुद पास ही के शहर में किराए का कमरा लेकर कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था। छह महीने पहले ही मां ने ज़िद करके उसके हाथ पीले कर दिए थे। अब मां के जाने से उसके परिवार पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा था।
गृह-लक्ष्मी की ज़िम्मेदारी उसकी पत्नी राधा पर आ गई थी और वह भी अठारह वर्ष की वय में। दिन तो किसी तरह निकल जाता था, पर जिस दिन वे दोनों बाप-बेटे नहीं होते थे, रात में बच्चों को डर लगने लगता था। सबने निश्चय किया कि कुछ दिनों के लिए चौकीदारिन माई को धन्ना के घर सोने के लिए सहमत किया जाए। माई के बेटे-बहुओं से पूछा गया तो बोले, ‘वैसे भी सारे दिन गांव में घूमती-फिरती है। कहीं भी रहे, हमारी बला से।’
दूसरे दिन से ही चौकीदारिन माई उनके परिवार का अंग बन गई थीं। शाम को माई के आते ही आस-पड़ोस की औरतों, बच्चों आदि का जमघट लग जाता। उनके पति की बहादुरी के क़िस्से, विपन्नता की घड़ियों में एक-दूसरे पर जान देने के ज़माने की बातें, गांव के पंचों द्वारा गांव में ही निबटाए गए बड़े-बड़े झगड़ों की कहानियां माई से ख़ूब सुनने को मिल रही थीं। दिन में तो माई को फुर्सत ही नहीं मिलती थी।
कभी किसी को नजला या न्यूमोनिया हो जाता था, तो माई को बुलाया जाता और माई रोगी को तुलसी, सौंठ ,लौंग, काली मिर्च और न जाने किन-किन औषधियों का काढ़ा बनवाती। कमरा, बरतन, कपड़े सब अलग रखवातीं। रोगी के कमरे और खाट के चारों पायों पर झूरे बांधतीं। नीम की पत्तियों को उबालकर उससे ही रोगी के हाथ-पैर धुलवाए जाते और ईश्वर का नाम लेकर झूरों से झाड़ा लगाया जाता। चौकीदारिन माई पूरी तरह समझाकर ही आतीं। यदा-कदा उनकी देखरेख चलती रहती ।
आज तो सुबह ही सुबह छीतर आ बैठा। ‘माई, चलो, आज बेटी का गौना है। गहने, कपड़े, नेगचार का सारा काम तुम्हारे बताए अनुसार ही होगा। हमने तो लापसी, पूड़ी और दाल का इंतज़ाम कर दिया है, बाक़ी तुम जानो, तुम्हारा काम।’ वहां से वापस आई तो घर पर दो-तीन औरतें गले की हड्डी ठीक करवाने के लिए अपने अपने शिशुओं को लेकर बहुत देर से इंतज़ार कर रही थीं।
सुबह-सुबह माई मंदिर अवश्य आ जाती थीं। साल में एक बार मंदिर में कुछ साध्वियों का दल आता, दो-तीन दिन वहां प्रवचन होते। माई उनसे घंटों तक ज्ञान की बातें किया करती थीं। मंदिर में भी कोई न कोई महिला किसी न किसी काम से माई का इंतज़ार करती मिलती। उस दिन लछमा कह रही थी, ‘माई क्या करूं, अब तो पति रोज़ मार-पीट करने लगा है।’ माई गुस्से से लाल हो गईं। बोलीं, ‘चल मेरे साथ, मैं करती हूं इलाज उसका।’ माई को देखते ही लछमा का पति रतना सहम गया।
वह सीधे रतना की आंखों में आंखें डालकर बोलीं, ‘रतना, तेरे हाथ-पैर ऐंठ रहे हों तो लड़ने के लिए मैं बता दूं नौजवान? देखती हूं कितनी देर तक लड़ता है। इस डेढ़ पसली की औरत को मारते हुए तुझे लाज नहीं आती। मर्द है तो बराबरी वाले से लड़।’ लड़खड़ाती ज़बान से रतना इतना ही कह पाया कि माई, यह मुझसे ज़बान लड़ाती है, मैं क्या करूं?
‘तो ज़बान का जवाब ज़बान से दे। तू काम नहीं करेगा, सारे दिन पड़ा रहेगा तो वह कुछ तो कहेगी ही।’ अचानक माई ने रतना के हाथ में मंदिर से लाया रामझारा रख दिया, ‘क़सम खा गंगा मैया की, आगे से इसको नहीं पीटेगा।’ और उस दिन से लछमा की समस्या का हमेशा के लिए समाधान हो गया।
गांव में जब तक नर्स बाई नहीं आई थी, तब तक माई ही प्रसव करवाती रही थीं। पर अब माई सबको मना करने लग गई थीं। कहती थीं, ‘मेरे पास न तो वैसे साधन हैं, न ही सुविधाएं जो अस्पताल में हैं।’ यह संयोग था या क़िस्मत, पर माई द्वारा कराए सभी प्रसव निरापद हुए। कई किशोर अब भी कभी कोई उपलब्धि मिलने पर दम ठोककर कहते हैं, आखिर घुट्टी किसकी लगी है? चौकीदारिन माई की।
विवाह के अवसर पर माई को दस दिन पहले ही लोग लेने आ जाते। विनायक स्थापना से लेकर गणेश विदाई तक के सारे कार्यक्रम चौकीदारिन माई की देखरेख में ही होते। माई का काम केवल सलाह देना, तरीक़ा समझाना, और ग़लती करने पर कभी-कभी मीठी झिड़की देना था।
मांगलिक गीतों की लय, बोल और किस अवसर पर कौन-सा गाना गाना है, जैसी बातों में माई का ही निर्देशन चलता था। माई की उपस्थिति ही अपने आप में कार्यक्रम की सफलता का आश्वासन था। कार्यक्रम समाप्त होने पर सम्मान से माई को विदा किया जाता। माई जो लातीं, बेटे बहुओं में बांट देतीं। हर शनिवार जब रामू घर आता तो माई से सारे क़िस्से सुनकर ही जाता। एक दिन उसने पूछा, ‘माई आपके लिए शहर से क्या लाऊं?’
‘कुछ नही रे।’ माई ने अपनी लूगड़ी का पल्लू खोला और रुपयों का एक मोटा-सा बंडल रामू को पकड़ा दिया। बोलीं, ‘इनको संभालकर रख ले। पहले तो मैं बेटे-बहुओं को दे दिया करती थी, पर ये कुछ रुपए मैंने अपने लिए रखे हैं। मैं मांगूं तब दे देना।’ राधा बोली, ‘माई, हम आपको एक संदूक और ताला-चाबी दे देते हैं। जब चाहो ले लेना, जब चाहो रख देना।’ रुपए गिनकर माई के सामने ही संदूक में रख दिए गए और चाबी माई को दे दी गई।
उधर पड़ोस के ही किशना चौधरी की बेटी का विवाह नज़दीक आ गया। सो सुबह-सुबह ही वह माई को लेने आ गया। बोला, ‘माई, कल से ही तुम हमारे घर पर रहोगी ओर गणेश विदाई के बाद ही वापस आओगी।’ माई कुछ जवाब देती, उसके पहले ही उसी समय हरखा बाबा भी अपनी पत्नी के साथ वहीं पहुंच गया। हरखा की पत्नी बोली, ‘माई, मैंने तुम्हें मंदिर में एक महीने पहले ही कह दिया था। कल पोती का ब्याह है सो साथ चलना होगा।’
किशना बोला, ‘माई को तो मैं लेकर जा रहा हूं।’ दोनों में तनातनी बढ़ गई। बात हाथापाई तक आ गई। आस-पास के लोगों ने जैसे-तैसे करके उनको अलग किया ।
शाम को पंचायत बैठी। पंचों ने चौकीदारिन माई से कहा, ‘तू ही बता माई, तू कल किधर जाना चाहती है? किशना चौधरी की बेटी के ब्याह में या हरखा बाबा की पोती के ब्याह में?’ माई हाथ जोड़कर बोलीं, ‘मेरे लिए तो दोनों ही बराबर हैं। मेरे लिए तो सारा गांव बराबर है। जैसा पंचों का हुकुम होगा, मैं उधर ही चली जाऊंंगी।’ किशना और हरखा ने अपने-अपने तर्क रखे। आपसी बहस और तनातनी चली। गड़े मुर्दे जमकर उखाड़े गए।
अंत में पंचों ने फ़ैसला चौकीदारिन माई पर ही छोड़ दिया। भोर होते ही माई स्वेच्छा से जिसके घर भी जाना चाहेगी, वहां उनका स्वागत होगा। पर दूसरा पक्ष उन्हें कुछ नहीं कहेगा। हां, किसी को सलाह चाहिए तो माई सबके लिए कहीं भी तैयार रहती हैं।
माई के लिए इस तरह से लड़ना मूर्खता से अधिक और कुछ नहीं है। पंचों के फ़ैसले के बाद माई बिना किसी से कुछ बोले आकर सो गईं। थका हुआ जानकर किसी ने नहीं जगाया। सुबह भोर में राधा ने देखा, तो माई की चारपाई ख़ाली थी। रामू ने भी उन्हें सब जगह ढूंढा, पर माई नहीं मिलीं। अंदर माई का संदूक खुला पड़ा था और रुपए उसमें नहीं थे।
कहीं हरखा, किशना या अपने बेटे-बहुओं के पास नहीं चली गईं? सारे लोग कौतुहलवश एक-दूसरे से पूछ रहे थे, ‘माई कहां गईं?’ सबने ख़ूब ढूंढा, पर माई कहीं नहीं मिलीं।
शाम तक भ्रम के बादल छंट गए — माई गांव छोड़कर चली गई थीं। सब किशना और हरखा बाबा को बुरा-भला कह रहे थे। मौसम में ज़ोरदार उमस थी। हर तरफ़ माई की चर्चा थी। उस शाम महिलाओं को खाना नहीं भाया और जिन्होंने भी खाया बेमन से ही खाया।

कविता : कान की व्यथा
लेखक : गौरव सिंह घाणेराव
मैं हूं कान! क्या बताऊं भैया हूं बड़ा परेशान।
पहले ढोता था सिर्फ चश्मे को
लेकिन अब लोग मास्क भी देते हैं तान।
कभी मास्टर जी द्वारा खींचा जाता हूं।
तो कभी हेलमेट में भींचा जाता हूं।
मज़ा तो तब आता है जब बच्चों के
पानी की क़तार में कानबुटी के काम आता हूं।
पर जब एक ही महिला द्वारा
सत्रह जगह से छेदा जाता हूं,
क्या बताऊं भैया बड़ा दुःख पाता हूं।
लोग कहते हैं, दीवारों के भी होते हैं कान।
कैसी विडम्बना है प्रभु!
चुगली तो करते ये इंसान,
और बदनाम हो जाता है कान।
उठक-बैठक भी लगाएं तो खींचा जाता कान।
कभी जो हवा भी बिगड़े तो जांचा जाता कान।
कोई जो जल्दी भड़के तो कच्चे पाते कान।
कोई जो चतुर निकले तो कतरते पाते कान।
जो मैं ही न रहूं तो कितना सूना हो इंसान।
फिर भी कभी भूल से भी न पाता सम्मान।
मैं हूं कान! क्या बताऊं भैया हूं बड़ा परेशान।