कहानी : कुछ न कहो
लेखक : संगीता माथुर
जीजाजी पर्व की शादी का कार्ड दे गए थे। ‘एकदम सादे समारोह में मात्र एक जोड़े में बहू ब्याहकर ला रहा है।’ सादे-से कार्ड के अंत में टंकित विशेष आग्रह- ‘कृपया कोई उपहार न लाएं। आपका आशीर्वाद ही उपहार है’ ने पर्व के प्रति मेरा प्यार और सम्मान द्विगुणित कर दिया! थम कर रह जाती है ज़िंदगी, जब जमकर बरसती हैं पुरानी यादें।
दीदी के देवर पीयूष की शादी में मुलाक़ात हुई थी उनके चचेरे देवर पर्व से। पूरी शादी वह मेरे आसपास बना रहा। दीदी ने मुझे छेड़ा था, ‘दिल आ गया दिखता है तुझ पर। पूछ रहा था ये भगवा कपड़ों वाली लड़की कौन है?’
मेरा कैमल कलर का शरारा सूट उस चश्मिश को भगवा लगा? ‘यह भी कह रहा था कि शादी में भला कौन दाल-चावल खाता है?’
‘तो क्या उसकी तरह हर वक़्त मिठाइयां भकोसूं?’
‘हूं! मतलब मैडम की भी बराबर नज़र है उस पर! वैसे लड़का अच्छा है, इंजीनियरिंग करके अभी नौकरी पर लगा है। बात चलाऊं?’ दीदी गंभीर हो गई थीं।
‘बिल्कुल नहीं।’ बाहर क़दमों की आहट हुई तो हमारी वार्ता को विराम लग गया था। पीयूष और पर्व थे। ‘भाभी, ट्रायल में शेरवानी का बटन निकल आया है।’ अधखुली शेरवानी में पीयूष को देख हमारी हंसी छूट गई। दीदी धागा पिरोकर लाईं तब तक किसी ने उन्हें पुकार लिया। दीदी सुई-धागा मुझे थमाकर चली गईं। बटन लगाते हुए मैंने ग़ौर किया, दोनों असामान्य रूप से चुप और गंभीर थे। अब तक दीदी लौट आई थीं।
‘भाभी, पापा-मम्मी की मांगें तो सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही हैं।’ पीयूष ने शिक़ायती लहज़े, लेकिन लाचार स्वर में कहा।
‘भाई, शादियों में यह सब चलता है।’ पर्व बोला।
‘हम चलने देते हैं इसलिए चलता है। आप आज नहीं बोलेंगे तो हमेशा के लिए अपनी ही नज़रों में गिर जाएंगे।’ मेरे समझाने पर पीयूष ने अपने पापा-मम्मी से बात की थी और सब कुछ ठीक हो गया था।
पर्व से मुलाक़ात होती रहती थी। वह अब संजीदा और ज़िम्मेदार हो गया था। एक दिन बाज़ार में मिला तो मुझे कॉफ़ी शॉप ले गया।
‘डेट पर लाए हो क्या?’ मैंने चुहल की।
‘ऐसा ही समझ लो।’ वह गंभीर था। ‘ज़िंदगी बदल दी है तुमने मेरी। टूटे बटन से लेकर आदमी के आत्मविश्वास तक को जोड़ने का हुनर रखती हो तुम। मैं तो अपनी दुल्हन एक जोड़े में ब्याहकर लाऊंगा।’
‘उदाहरण देना आसान है, उदाहरण बनना मुश्किल।’
‘तुम साथ दो तो सब मुमकिन है।’ वह बिल चुकाने लगा तो मैंने आधे पैसे रख दिए, ‘डेट पर लड़का ही क्यों बिल भरे?’
‘मैं आजकल कुकिंग सीख रहा हूं। परिवार के लिए स्त्री ही क्यों पकाए?’
‘वाह! आई एम इंप्रेस्ड।’
पर्व के लिए मेरे दिल में भी कोमल भावनाएं जन्म लेने लगी थीं कि सुसंस्कृत सफल बिज़नेसमैन विपुल से मेरा रिश्ता तय हो गया। पर्व काफी समय से नहीं मिला था, न कोई मैसेज था।
उसकी इस चुप्पी का रहस्य सगाई की रात मां और दीदी के वार्तालाप से खुला। ‘आपको वाणी को पर्व का रिश्ता आने की बात बतानी तो चाहिए थी।’
‘उस परिवार का स्तर हमसे मेल नहीं खाता। वाणी विपुल के संग ज़्यादा ख़ुश रहेगी।’ मां का सच्चाई छुपाना चुभा था पर विपुल को लेकर किया उनका दावा ग़लत नहीं था। मैं विपुल के संग बहुत ख़ुश हूं। पर पर्व? कितनी कड़वाहट होगी उसके मन में मेरे प्रति। पूरी शादी अपराधबोध से भरी, मैं पर्व से नज़रें चुराती रही।
आज हम नवविवाहित दीदी के यहां डिनर पर आमंत्रित हैं। पर्व से एकांत में सामना हुआ तो मैं अचकचाने लगी।
‘कुछ मत कहो। तुम मेरे लिए आज भी उतनी ही विशिष्ट और आत्मीय हो। दिल टूटा अवश्य था पर उस क्षणिक कड़वाहट को मैंने दिल के एक कोने में छुपा लिया था। वैसे भी हमारा नाता लव, ब्रेकअप, पैचअप जैसी सतही चीज़ों से बहुत-बहुत ऊपर है। उसे किसी रिश्ते या शब्दों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। उसे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। मुझे तुमसे और बहुत कुछ सीखना है।’
‘मुझे भी!’ ख़ुशी से मेरी आंखें बरसने लगी थीं। जो सच में तुम्हें चाहता है वो तुमसे कुछ नहीं चाहता।

लघुकथा : समिधा
लेखक : आशीष श्रीवास्तव
भैया! लगता है यज्ञ के लिए जितनी लकड़ियां लाए थे, उतनी वहां नहीं हैं। चलकर देखिए। लकड़ियां ग़ायब हो रही हैं।’ भैया ने देखा तो पाया कि लकड़ियां वाक़ई कम बची हैं जबकि अभी यज्ञ प्रारंभ भी नहीं हुआ। ये भला किसकी शरारत हो सकती है, वे सोच में पड़ गए!
चूंकि भैया दुर्गा उत्सव समिति के अध्यक्ष भी थे, इसलिए वे इसी प्रयास में लगे रहते कि उनकी देख-रेख में सभी अनुष्ठान अच्छी तरह पूरे हो जाएं। कुछ देर सोचने के बाद भैया नेे किसी को कुछ कहने से पहले पंडाल के बाहर सीसीटीवी कैमरे लगवा दिए।
दरअसल, इस बार कोरोना महामारी के कारण भव्य झांकी स्थापित नहीं की जा सकती थी, इसलिए दुर्गा उत्सव समिति ने निर्णय लिया कि नवरात्र में आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण नौ कुंडीय यज्ञ करा लिया जाए, जिसमें संक्रमण से प्राणी मात्र को बचाने की प्रार्थना भी की जाएगी। इसमें बहुत कम लोगों को शामिल होने की अनुमति थी।
सबकुछ योजना के अनुसार ही चल रहा था कि खुले मैदान में रखी लकड़ियां कम हो गईं। आश्चर्य! भला ऐसी महामारी के दौर में जब लोग अनजान वस्तु को छूने से भी भयभीत हो रहे हों, तब अनुष्ठान की लकड़ियां कौन ले जाएगा, यह प्रश्न सबके मस्तिष्क में कौंधने लगा।
सबने तय किया कि थोड़ी-बहुत लकड़ी ग़ायब हो जाने के लिए क्या शिकायत दर्ज कराएं, हां, यदि रंगे हाथ पकड़ा जाए तो बहुत अच्छा! यही सोचकर बाक़ी लकड़ियां वहीं रखी रहने दी गईं।
अगले दिन सीसीटीवी कैमरे देखे तो सभी हतप्रभ रह गए। एक वृद्धा कंपकंपाते हाथों से बोरी में लकड़ियां भरकर ले जा रही थी। फुटेज देखने के बाद सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। ‘ये बुज़ुर्ग अम्मा तो अक्सर ही मोहल्ले में घूमती दिख जाती हैं।’
पहचान होते ही भैया, साथियों के साथ उस वृद्धा की झुग्गी में पहुंच गए। देखा तो झुर्रीदार चेहरा और चितकबरे बालों पर जमे राख के कण लिए वृद्धा फुंकनी से फूंक-फूंककर चूल्हे पर रोटियां बना रही है। सामने बैठे दो बच्चे खाना खा रहे थे।
लड़कों को द्वार पर आया देखकर अम्मा कहने लगीं, ‘हां, बेटा! अब अधिक चला नहीं जाता, इसलिए मैं ही लकड़ियां उठा लाई ताकि इन बच्चों के लिए खाना बना सकूं। भगवान तुम लोगों का अनुष्ठान सफल करे।’
समिति सदस्य सब देख-सुनकर निःशब्द रह गए। लेकिन उन्हीं में से एक होटल संचालक का बेटा विनयपूर्वक कहने लगा, ‘अम्मा, कल से कोने वाले होटल से बना-बनाया खाना ले जाया करो, अब भटकने की ज़रूरत नहीं।’
इतना सुनते ही बूढ़ी अम्मा की रुलाई फूट पड़ी। रोते-रोते ही आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, ‘जीते रहो बेटा, भगवान तुम लोगों को हमेशा ख़ुश रखें।’
और फिर सभी लड़के हवन स्थल पर लौट आए। सबके मन में एक ही बात चल रही थी- ‘अनुष्ठान तो अनजाने में ही हो गया।’